श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है एक धारावाहिक कथा “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय भाग।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही -लोकनायक रघु काका-4 ☆
अब तूफ़ान थम चुका था। उनके सारे सपने बिखर गये थे। वे वापस लौट चलें थे। अपने गाँव की उन गलियों की ओर जिसके निवासियों ने उन्हें अपार स्नेह दिया था। वहीं पर उनके अपने ने घृणा नफरत का उपहार दिया था।उन्हें प्रांगण से बाहर निकलता देख रामखेलावन की जान में जान आई थी,और तुरंत मंचासीन हो अपनी कुर्सी संभाल चुके थे। प्रतियोगियों को पुरस्कृत भी किया था। लेकिन उनके हृदय का सारा उत्साह जाता रहा था। उन दोनों बाप बेटों के मन में अपने ही विचारों के अंतर्द्वंद्व की आँधियां चल रही थी। दोनों की व्यथा अलग अलग थी। रामखेलावन सोच रहे थे कि यही स्थिति रही तो एक न एक दिन बूढ़ा बेइज्जती कर ही देगा। पिता जी के आचरण से मुझे अपमानित होना पड़ेगा। उन्होंने अपने मन में झूठी शानो-शौकत तथा बड़प्पन का दंभ पाल लिया था।वे शायद यह भूल चुके थे कि वह आज जो कुछ भी है,वह रघूकाका के त्याग तपस्या व व्यवहार का परिणाम था। उसी के चलते ऊँचा ओहदा ऊँची कुर्सी मिली थी। वे आज दृढ़ निश्चय कर घर को चले थे कि अब और नहीं वे आज ही बुढऊ की ढोल खूंटी पर टांग देंगे। एक तरफ जहां रामखेलावन के हृदय में आक्रोश की ज्वाला क्षोभ का लावा उबाल मार रहा था, वहीं रघूकाका किसी हारे हुए जुआरी की तरह बोझिल कदमों से घर लौट रहे थे
ऐसा लगा जैसे जीवन के जुये में एक ही दांव पर वे अपना सब कुछ अपनी सारी पूँजी एक बार में ही हार बैठे हों। आज चोट बलिष्ठ शरीर पर नहीं भावुक दिल पर लगी थी। वे सोच रहे थे कि काश उस दिन अंग्रेजों की एक गोली उनके छाती में उतर गई होती तो अपमान जनक जिंदगी से सम्मानजनक मौत भली होती। इस प्रकार भावनाओं के भंवर में डूबते उतराते ही रघूकाका घर पहुँचे थे। तब तक राम खेलावन का तांगा भी घर के दरवाजे पर आ लगा था।
लालटेन की पीली जलती हुई लौ की रोशनी के साये में उन दोनों बाप-बेटे का सामना हुआ था।
एक ही रोशनी में बाप बेटों का रंग अलग अलग दिख रहा था। रघूकाका का चेहरा जहां जूड़ी के बुखार के मरीजों की तरह पीला म्लान एवम् उतरा दीख रहा था, वहीं रामखेलावन के चेहरे की भाव भंगिमा बता रही थी कि आक्रोश की आग में जलते दहकतेअंगारों सी लालिमा लिए रामखेलावन रूपी उगता सूरज आज अवश्य कहर ढायेगा ।
रघूकाका के सामने आते ही ना दुआ ना सलाम फट पड़े थे बारूद के गोले की तरह रामखेलावन – “का हो बुढ़ऊ! काहे हमरे इज्जत के कबाड़ा करत हउआ,अब तक ई ढोल रख द, तोहार सारी कमी हम पूरा करब।”
अब रघूकाका से भी रहा नहीं गया।
उनके हृदय में पक कर मथ रहा भावनाओं का फोड़ा फूट पडा़ और वे भी अपने ताव में आ गये और बोल पडे़ – “राम खेलावन जी, आज ई जे कुर्सी तोहके मिलल ह, ई
एही ढोल के कमाई ह, हमें खुशी तो तब होत जब तूं सारे समाज के सामने सीना तान के कहता कि हम एगो आल्हा गावे वाला स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के लडिका हई, जेवन
अपने मेहनत अ इनके परिश्रम के पसीना से इहा तक पहुंचल हइ,। औ अपने समाज के उदाहरन बनता, लेकिन जे समाज में अपना बाप के बाप ना कहि सकल उ बेटा के रिस्ता का निभाई,जा बेटा तू आपन सम्मान के जिनगी में सुखी रहा, हमें हमरे हाल पे छोडि दा तू भले छूटि जईबा लेकिन ई समाज अ ढोलक हम ना छोडि पाईब” इस प्रकार रघूकाका के व्यंगबाणो ने रामखेलावन को आहत तो किया ही । निरूत्तर भी,और बह चली उस सेनानी की आंखों से अश्रु धारा और फिर एक बार लौट चलें अपनी सहचरी ढोल को कंधे पे लटकाये नीम स्याह काले घने अंधेरे के बीच जीवन की पथरीली राहों पर अपने जीवन की नई राह तलाशने। उस राह पे चल पड़े उल्टे पांव जिस राह से चलकर वे घर आये थे।
उन्होंने उस नीम अंधेरी घनी काली आज की रात अपने मन में मचलते अंतर्दद्व के साथ शिवान में खेतों बीच बने भग़्न शिवालय में बिताने का निश्चय कर लिया था। आखिर वे जाते भी तो कहां ? राम खेलावन की उन्हें रोकने की हिम्मत नहीं हुई थी। वो सोच रहे थे कि कल की मंजिल सुबह की सूर्योदय के साथ नई उम्मीद के सहारे ढ़ूढ़ ही लेंगे ।
वो मंदिर के बरामदे में बैठे कुछ सोच रहे थे। गतिशील समय के साथ रात गहराती जा रही थी और उसी गहराती रात के साथ रघूकाका के हृदय का अंतर्दद्व तीव्र हो चला था। उसी अंतर्दद्व में फँसे अपनी स्मृतियों डूबते चले गये थे। जब विचारों की गहनता बढ़ी तो रघूकाका के स्मृतिपटल पर पत्नी का चेहरा नर्तन कर उठा। ऐसा लगा जैसे वे उन बीते पलों से संवाद कर उठे हो।
उन्हें पत्नी के साथ बिताए पल हंसाने व रूलाने लगे थे। सहसा उनके स्मृति में पत्नी के मृत्यु के समय का दृश्य उभर आया थाऔर जीवन के आखिरी पल में कहे पत्नी के शब्द याद आ रहे थे।
आखिरी समय में उनकी पत्नी ने प्यार से उनका हाथ थामते हुए आशा भरी नजरों से उन्हें देखते हुए कहा था “देखो जी रामखेलावन अभी बच्चा है इसे पाल पोस कर अच्छा इंसान बनाना , . मेरे मरने पर इसी के सहारे जीवन बिताना। अपना बुढ़ापा काटना। लेकिन दूसरी शादी मत करना।”
इसके बाद वह कुछ नहीं कह पाई क्यो कि रघूकाका ने उसको ओंठो पर अपना हाथ रख दिया।अब जीवन के आखिरी पलों में बिछोह पीड़ा का भाव रघूकाका के हृदय में कटार की तरह चुभ रहे थे, जिसे सहने में वे असहाय नजर आ रहे थे। और फिर अगली सुबह उनकी पत्नी उनको रोता बिलखता छोड़ नश्वर संसार से बिदा हो गई।
क्रमशः …. 5
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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