श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  काशी निवासी लेखक श्री सूबेदार पाण्डेय जी का विशेष आलेख  “कजरी क्या है ?। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – कजरी क्या है ?

भारतीय गेय विधा में अनेकों  राग  में देश-काल समय के अनुसार गाते जाने वाले गीत है। इनकी प्रस्तुति अलग-अलग संगीत घरानों द्वारा दी जाती रही है, जिसमें होली, चैता, कजरी, दादरा, ठुमरी आदि शामिल हैं।

कजरी महिला समूहों द्वारा गाया जाने वाला बरखा ऋतु का लोक गीत है। इसका उद्गमस्थल गंगा की गोद में बसा मिर्जापुर का इलाका है, जहां पहले इसे महिला समूहों द्वारा ढ़ुनमुनियां कजरी के रूप में गाया जाने लगा था।  लेकिन समय के साथ इसका रंग रुप भाव अंदाज़ सभी कुछ बदलता चला गया। अब यह पूरे भोजपुरी समुदाय द्वारा गाई जाने वाली विधा बन गया है।  इसमें पहले विरह का भाव प्रमुख होता था। अब यह संयोग-वियोग, श्रृंगार, विरह प्रधान हो गया है। अब धीरे-धीरे इसमें पौराणिक कथाओं तथा व्याकरण का भी समावेश हो गया है तथा अब इसको  पूर्ण रूप से शास्त्रीय घरानों द्वारा अंगीकार कर लिया गया है। इसे उत्सव के रूप में भाद्र पद मास के कृ ष्ण पक्ष की तृतीया तिथि को कजरी तीज के रूप में महिलाएं मनाती हैं।

माना जाता है कि वर्षा ऋतु में पिउ जब परदेश  में ‌होता है उस समय किसी विरहनी की विरह वेदना को  अगर गहराई से एहसास करना हो तो व्यक्ति को कजरी अवश्य सुनना चाहिए। इसी क्रम में विरह वेदना से चित्रांकित कजरी गीत के भावों से रूबरू कराता मेरे द्वारा रचित उदाहरण देखें

कजरी गीत

हो घटा घेरि  घेरि,बरसै ये बदरिया ना । टेर। हो घटा घेरि घेरि।।

हरियर भइल बा सिवान, गोरिया मिल के रोपे धान। गोरिया मिल के रोपै धान।

झिर झिर बुन्नी परे ,भिजे थे चुनरिया ना।। हो घटाघेरि घेरि बरसै ये बदरिया ना।।1।

बहे पुरूआ झकझोर, टूटे देहिया पोर पोर।
घरवां कंता नाही, सूनी ये सेजरिया ना।। हो घटा घेरि घेरि।।2।।

दादुर पपिहा के बोली,,मारे जियरा में गोली,

सखियां खेलै लगली, तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि।।3।।

एक त बरखा बा तूफानी,चूवै हमरी छप्पर छानी (झोपड़ी की छत)।

काटे मच्छर औ खटकीरा, बूझा हमरे जिव के पीरा।।हो घटा घेरि घेरि बरसै।।4।।

घरवां माई बा बिमार,आवै खांसी अउर बोखार।

दूजे देवरा बा शैतान,रोजवै करें परेशान।।हो घटाघेरि घेरि।।5।।

बतिया कवन हम बताइ ,केतनी बिपत हम गिनाई।

सदियां सून कइला तीज और कजरिया ना।।हो घटा घेरि घेरि बरसै रे ।।6।।

मन में बढ़ल बेकरारी,पाती गोरिया लिख लिख हारी।

अब तो कंता घरे आजा, आके हियवा में समाजा।। घटा घेर घेर बरसै रे।।7।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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