श्री प्रहलाद नारायण माथुर
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 30 ☆ मृग तृष्णा ☆
मृग तृष्णा में भटकता रहा जीवन भर
यहां से वहां इधर से उधर, उस मन मोहक मृग की चाह में
खेलता रहा जो हमेशा लुका छुपी का खेल
मोहक छवि कभी स्वर्ण सा कभी रजत सा दिखता रहा मृग ||
चल पड़ता अदृश्य होते मृग की खोज में
मादक अदा से बार-बार अदृश्य हो कर मुझे छलता रहा मृग
मस्तिष्क-पटल पर हमेशा अवतरित रहा मृग
भूलना चाहा पर फिर मनमोहक अदा दिखा व्याकुल कर जाता मृग ||
कभी स्वर्ण तो कभी रजत सा दिखता मृग
कभी लगती मन की कल्पना तो कभी पूर्वजन्म की अधूरी अभिलाषा
प्रकट हो लुभावनी अदा से आमंत्रित करता मृग
यौवन लील लिया मृग तृष्णा ने,कभी हासिल हो ना सका मोहक मृग ||
मृग का पीछा करते वृद्ध मार्ग तक पहुँच गया
मृग, मोहिनी अदा से सम्मोहित कर वृद्ध मार्ग पर फिर बढ़ जाता आगे
संध्या हो चली जीवन की, मन तृष्णा से व्यथित
अंधकार की और बढ़ता जीवन,चमकते नैनों से आमंत्रित करता रहा मृग ||
बार-बार मोहिनी अदा दिखा आगे बढ़ जाता
उबड़-खाबड़ दुर्गम कंटीले रास्ते पर बहुत आगे तक ले आया मुझे वो
थक कर विश्राम को बैठ गया राह में
शायद ही उसे पा सकूं मगर फिर सामने आकर मुझे रिझा जाता मृग ||
चारों और घनघोर अँधेरा, अमावस्या की स्याह रात
अब कुछ भी नजर नहीं आ रहा सिवाय दूर चमकते दो मृग नैनों के
थक कर अब और आगे बढ़ ना पाया,
अंतिम छोर तक पहुंचा कर धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गया मृग ||
© प्रह्लाद नारायण माथुर