(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी की एक अतिसुन्दर कविता ‘मास्क’। इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 91 ☆
☆ कविता – मास्क ☆
बचपन में मेरे खिलौनों में शामिल थी
एक रूसी गुड़िया
जिसके भीतर से निकल आती थी
एक के अंदर एक समाई हुई हमशकल
एक और गुड़िया।
बस थोड़ी सी छोटी आकार में !
सातवीं सबसे छोटी गुड़िया भी
बिलकुल वैसी ही
जैसे बौनी हो गई हो
पहली सबसे बड़ी वाली गुड़िया
सब के सब एक से मुखौटौ में !
बचपन में माँ को और अब पत्नी को
जब भी देखता हूँ
प्याज छीलते हुये
या काटते हुये
पत्ता गोभी परत दर परत ,
मुखौटों सी हमशकल
बरबस ही मुझे याद आ जाती है
अपनी उस रूसी गुड़िया की !
बचपन जीवन भर याद रहता है !
मेरे बगीचे में प्रायः दिखता है एक गिरगिटान
हर बार एक अलग पौधे पर ,
कभी मिट्टी तो कभी सूखे पत्तों पर
बिलकुल उस रंग के चेहरे में
जहाँ वह होता है
मानो लगा रखा हो उसने
अपने ही चेहरे का मुखौटा
हर बार एक अलग रँग का !
मेरा बेटा लगा लेता है
कभी कभी रबर का कोई मास्क
और डराता है हमें ,
या हँसाता है कभी जोकर का
मुखौटा लगा कर !
मैँ जब कभी शीशे के सामने खड़े होकर
खुद को देखता हूँ
तो सोचता हूँ
अपने ही बारे में
बिना कोई आकार बदले
बिना मास्क लगाये या रंग बदले ही
मैं नजर आता हूँ खुद को
अवसर के अनुरूप हर बार नए चेहरे मे ।
© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर
ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈