श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद साहित्य “ में प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय जी की एक रोचक एवं भावपूर्ण रचना “उजालों का उपहार”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 77 ☆ उजालों का उपहार ☆
आंखें मानव को दी गई ईश्वरीय उपहार हैं। इनमें ज्योति के बिना जीवन सूना हो जाता है और मानव बाहरी दुनिया देखने वंचित रहता है। इन आंखों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है, जैसे आंख, नयन, अम्बक, अक्षि, चक्षु, चश्म, दृग, दीदा, नेत्र, लोचन, इक्षण, विलोचन आदि और ना कितने नाम। इन आंखों के विषय में बहुत सारी रोचक जानकारी हमें हिंदी साहित्य, फिल्मी दुनिया तथा अध्यात्म जगत में अध्ययन के समय दृष्टिगोचर होती है। आइए इन से कुछ रोचक जानकारी प्राप्त करें।
अनेक फिल्मों के गीत हमें आंखों की भाव भंगिमा उपयोग तथा सौंदर्य बोध कराते हैं जैसे —
तेरी ? आंखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है,
ये उठे सुबह चले, ये झुके शाम ढ़ले,
मेरा जीना मेरा मरना इन्हीं पलकों के तले।
तो वहीं दूसरा उदाहरण देखें। नायिका कहती हैं–
इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं।
तो वहीं एक उदाहरण और प्रस्तुत है जब नायिका अंखियों के झरोखों से झांकने की बात करती है–
अंखियों के झरोखों से, तूने देखा जो झांक के, मुझे तूं नजर आये, बड़ी दूर नज़र आये।
वहीं कोई नायक गा उठता है — आंख मारे इक लड़की आंख मारें।
वहीं पर कोई नायक अपनी आंखों से नेत्रहीन नायिका के नैनों के दीप जलाने अर्थात् अपनी आंखों से दुनियां दिखाने का भरोसा दिलाने का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करता है।
तेरे नैनों के मैं दीप जलाऊंगा,
अपनी आंखों से दुनियां दिखलाऊंगा।
तो इन्हीं भावों को समेटे बिहारी जी अपने दोहों में नेत्रकोणों की उपयोगिता दर्शाते हुए कहते हैं —
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौह कहै भौहनि हंसै, देन कहै नटि जाय।
में नायिका की शरारत भरी कुटिलता दर्शाती है तो उनका दूसरा उदाहरण जो आंखों में छुपे भावों को दर्शाता है जैसे —
अमिय हलाहल मद भरे,
श्वेत श्याम रतनार।
जियत मरत झुकि झुकि परत,
जेहि चितवत इक बार।।
तो वहीं पर आंखों के सौंदर्य बोध से प्रभावित तमाम साहित्यकारों ने पशु पक्षियों, पुष्पों की पंखुड़ियों से आंखों की उपमा दी है जैसे — मृगनयनी, मृगलोचनि, खंजनलोचनी, तो वहीं पर भगवान के नेत्रों के लिए कमलनयन, त्रिलोचन शब्दों की उपमा दी गई है। कमलवत नयन जहां आंखों का सौंदर्य बोध करता है वही शिव का तीसरा नेत्र क्रोध को प्रर्दशित करता है। जैसे —
तब शिव तीसर नेत्र उघारा,
चितवत काम भयउ जरि छारा।।
वहीं पर नेत्रहीनों का अंतर्नेत्र या अंतरचक्षु आत्मज्ञान की महत्ता दर्शाता है।
वहीं कोई उर्दू भाषी उर्दू जुबान बोलने वाला आंखों की शान में चंद लब्ज बोलता है कि —
नजर ऊंची कर ली, दुआ बन गई,
नजर नीची कर ली, हया(शर्म) बन गई।
नजर तिरछी कर ली कज़ा बन गई।
तो वहीं हिंदी साहित्य में आंखों को संबोधित तमाम मुहावरों का भी खूब खुल कर प्रयोग हुआ हैं, जैसे आंखें मारना, इशारो में संकेत देना, आंखों से गिर जाना – मर्यादा खो देना, आंखों का तारा बनना – चहेता बन जाना, आंख कान खुला रखना – सतर्क रहना आदि।
वहीं पर भगवान की बाल लीलाओं में भी आंखों से देखने का प्रभाव उनके मानस पर उनकी भाव-भंगिमाओं मे दीखता है, जैसे –
कबहूं शशि मांगत रारि करैं,
कबहूं प्रतिबिंब निहारि डरैं।
कबहूं करतारि बजाई के नाचैं,
मातु सबै मन मोद भरैं।
कोई भक्त भी पुकारता दिख जाता है — अंखियां हरि दर्शन की प्यासी।
इस प्रकार हमारे जीवन में आंखें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है।
मृत्यु के पश्चात हम अपनी तथा परिजनों का नेत्रदान संपन्न करा कर किसी की जिंदगी को उजालों का उपहार दे सकते हैं।
#सर्वेभवन्तु सुखिन: के साथ #
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Ati sumder , sunder vardan