सुश्री शिल्पा मैंदर्गी
(आदरणीया सुश्री शिल्पा मैंदर्गी जी हम सबके लिए प्रेरणास्रोत हैं। आपने यह सिद्ध कर दिया है कि जीवन में किसी भी उम्र में कोई भी कठिनाई हमें हमारी सफलता के मार्ग से विचलित नहीं कर सकती। नेत्रहीन होने के पश्चात भी आपमें अद्भुत प्रतिभा है। आपने बी ए (मराठी) एवं एम ए (भरतनाट्यम) की उपाधि प्राप्त की है।)
☆ जीवन यात्रा ☆ मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ – भाग – 11 – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी ☆ प्रस्तुति – सौ. विद्या श्रीनिवास बेल्लारी☆
(सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी)
(सुश्री शिल्पा मैंदर्गी के जीवन पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ “माझी वाटचाल…. मी अजून लढते आहे” (“मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”) का ई-अभिव्यक्ति (मराठी) में सतत प्रकाशन हो रहा है। इस अविस्मरणीय एवं प्रेरणास्पद कार्य हेतु आदरणीया सौ. अंजली दिलीप गोखले जी का साधुवाद । वे सुश्री शिल्पा जी की वाणी को मराठी में लिपिबद्ध कर रहीं हैं और उसका हिंदी भावानुवाद “मेरी यात्रा…. मैं अब भी लड़ रही हूँ”, सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी जी कर रहीं हैं। इस श्रंखला को आप प्रत्येक शनिवार पढ़ सकते हैं । )
मेरा भरतनाट्यम नृत्य का एम.ए. का अभ्यास शुरू था। दीदी ने मुझे नृत्य का एक एक अध्याय देना शुरू किया। एम.ए. करते हुए मुझे जो जो परेशानियां आयी वह समझते हुए, उनकों याद करती हूँ। तो बहुत तकलीफ होती है और जीवन में मुझे जो परेशानियाँ आयी वह उनके सामने कुछ भी नहीं लगती। क्योंकि एम.ए जैसी उच्च पदवी हासिल करने के लिए जो कोशिश, मेहनत और मुख्य बात से एकाग्रता इनकी जरूरत होती है। जब मेरा यह कठिन अभ्यास शुरु था तब मेरे मम्मी-पापा के बढ़ती आयु, बुढ़ापे की वजह से उनके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ रहा था, इसलिए मैं बहुत चिंतित थी।
उस वक्त मेरे भाई ने मिरज सांगली के बीच में विजय नगर क्षेत्र में मकान बनाया था। उसी वक्त मेरे माँ की आंखों का ऑपरेशन हुआ था। इसलिए हम तीनों को वह उधर लेकर गया। लेकिन मेरी क्लास मिरज में था इसलिए मुझे रोज उधर से आना पड़ता था। ज्यादातर मेरा भाई कार से मुझे वहां तक छोड़ता था, लेकिन वह जब काम में व्यस्त रहता था तो मेरे पापा मुझे शेयरिंग ऑटोसे वहां तक छोड़ते थे। उसी वक्त मेरे पापा का पार्किंसन्स की बीमारी बहुत बढ़ गयी। मैंने एम.ए. करना चाहिए यह उनकी प्रबल इच्छा थी। इसीलिए हम कोई भी परेशानी आए उसका सामना करते थे, उस से नहीं डरते थे।
जब हम ऑटो की राह देखते थे तब बहुत बार हमें ट्रैफिक से भरी हुई सड़क पार करनी पड़ती थी। इसलिए हम जान मुठ्ठी में लेकर सड़क पार करते थे। तब मुझे पापा के हाथों की थरथराहट समझती थी, पैदल चलते वक्त
उनको हो रही तकलीफ मैं समझती थी। लेकिन वह कोई भी शिकायत न करते हुए मेरे लिए भरी धूप में आते थे।
उनकी कोशिश, मेहनत थी इसीलिए तो सब संभव हो पाया।
नृत्य के प्रदर्शनों का मार्गदर्शन शुरू हो गया था। लेकिन अब सवाल था थिअरी का। एम.ए. के पढ़ाई में भारतीय नृत्य के अध्ययन के साथ ‘तत्वज्ञान’ जैसा कठिन विषय था।
हर साल ऐसे कुल मिलाकर ४ विषयों की पढ़ाई मुझे करनी थी। अब बड़ा सवाल था वह पढ़ने का। मुझे, मैं अंदमान से आने के बाद जिन्होंने मेरा इंटरव्यू लिया था, वह सौ. अंजली दीदी गोखले इनकी याद आयी और मैंने उनको फोन किया। उन्होंने मुझे पढ़कर बताने के लिए खुशी से हाँ कह दिया। ऐसे मेरी वह भी परेशानी दूर हो गई। दीदी ने उनके एम.ए. के कुछ नोट्स मुझे पढ़ने के लिए दिए थे। इसके अलावा खरे मंदिर पुस्तकालय से कुछ संदर्भ ग्रंथ हमें मिले थे। इस तरह एम.ए. के पढ़ाई का रूटीन अच्छा चल रहा था।
प्रस्तुति – सौ विद्या श्रीनिवास बेल्लारी, पुणे
मो ७०२८०२००३१
संपर्क – सुश्री शिल्पा मैंदर्गी, दूरभाष ०२३३ २२२५२७५
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈