डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक भावुक बुंदेली लघुकथा  “आस का दीपक”.)

 

☆ लघुकथा – आस का दीपक  

 

“आए गए कलुआ के बापू, आज तो अपन का काम होइ गओ हुईए –” कहत भई कमली  बाहर आई  तो आदमी के मुँहपर छाई मुर्दनी देखी तो किसी अज्ञात खुशी से खिला उसका चेहरा पीलो पड़ गओ।

रघुवा ने उदास नजरों से अपनी बीवी को देखा और बोला – “इत्ते दिना से जबरनई तहसीलदार साहब के दफ्तर के चक्करवा लगाए रहे, आज तो ऊ ससुरवा ने हमका दुत्कार दियो और कहि कि तुमको मुआवजा की राशि मिल गई है, ये देखो तुम्हारा अंगूठा लगा है इस कागज़ पर और लिखो है कि  रघुवा ने 2500 रुपया प्राप्त किये।”

जिस दिन से बाबू ने आकर रघुवा से कागद में अंगूठा लगवाओ हतो  और कहि हती कि सरकार की तरफ से फसल को भये नुकसान को मुआवजा मिल हे, तभई से ओकी बीवी और बच्चे  के मन में दिवाली मनावे हते एक आस का दीपक टिमटिमाने लगा था, लेकिन बाबुओं के खेल के कारण उन आंखों में जो आस का दीपक टिमटिमा रहा था  वह जैसे दिए में तेल सूख जाने के कारण एकाएक ही बुझ गया।

 

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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