सुश्री शशि पुरवार

(सुश्री शशि पुरवार जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत। आप 100 Women Achievers of India की सूची में शामिल हैं। आप स्वतंत्र लेखन, स्तंभकार, व्यंग्यकार, कहानीकार, गीतकार एवं संपादन कार्य संपादित कर रहीं हैं। साथ ही दिल्ली प्रेस पत्रिका के लिए लेखन कार्य भी कर रहीं हैं। आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री विजय सिंह चौहान जी के लघु कथा संग्रह ‘पत्थर पर बुवाई’ की समीक्षा।)

? पुस्तक चर्चा –  पत्थर पर बुवाई – लेखक – श्री विजय सिंह चौहान  ? समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार ?

पुस्तक  – पत्थर पर बुवाई

लेखक – श्री विजय सिंह चौहान

प्रकाशक –  शिवना प्रकाशन 

पृष्ठ १३२   

मूल्य १७५  रु

समीक्षक – सुश्री शशि पुरवार

विजय सिंह चौहान का लघुकथा संग्रह  पत्थर पर बुवाई शीर्षक से ही आकर्षित करता है। पत्थरों की बुवाई करके समाज की कई संवेदनाओं और कुरीतियों  पर उन्होंने अपनी क़लम चलाने का बेहतरीन प्रयास किया है।

लघुकथा कम शब्दों में तीव्र प्रहार कर अपनी बात पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम होती है। विजय सिंह की लघु कथाएँ उनके मानक मैं फ़िट बैठती है। फिर भी कहीं कहीं लघु कथाएं परिमार्जन चाहती है ।

कुछ लघु कथाओं में स्त्री विमर्श के तीव्र स्वर भी नज़र आते हैं।  वर्तमान परिपेक्ष में लिव इन संबंधों से जन्मी वेदना अनगिनत प्रश्न पीछे छोड़ देती है। स्त्री  पुरुष समागम से उत्पन्न परिस्थिति में सिर्फ़ इस स्त्री को ही मानसिक भावनात्मक और ज़िम्मेदारियों से जूझना पड़ता है यह समाज की कुरीति  पर एक  करारा तमाचा है। आख़िर स्त्री की क्यों छली जाती है।  पुरुष आत्मसंतुष्टि के बाद हर बंधन से आज़ाद हो जाता है और पीछे छूट जाती है उसके द्वारा दी गई जिम्मेदारियां।  कृत्य करने में स्वीकृति पुरुष की भी होती हैं लेकिन उसका फल अकेली स्त्री ही ढोती है। स्त्री स्वाभिमान , स्त्री अस्मिता के स्वर वेदना को पाठकों तक पहुँचाने में वे सक्षम रहे हैं।

बड़ी रोटी के माध्यम से संयुक्त परिवार के महत्व को बताया गया है। उसकी यादें ताजा हो जाती है  जो वर्तमान परिपेक्ष में अस्तित्वहीन हो  गया है। कई लघु कथाएं टूटी पगडंडी, तपता बदन, कटी बाज़ू ,गृहस्वामिनी, ब्लू टिक , निर्जला, बाँझ , शकुन , मौन प्रश्न, अनगिनत संवेदनाओं को व्यक्त करने में सफल रहे हैं। कथ्य अपने पीछे प्रश्न छोड़ ते है। मुहर में सार्थक संदेश है आज के समय में हो रही बर्बादी के लिए चेतना की आवश्यकता है।

मेरे ख्याल से लघुकथा और वन लाइनर दोनों अलग है उसे इस विधा में शामिल नहीं करना चाहिए हालाँकि विजय जी अपने नपे तुले शब्दों में समाज की वास्तविकता को उकेरने में सक्षम है। लेकिन कभी कभी पंक्तियां अपनी पूर्णता चाहती है। गद्य हो  या पद्य उसकी रवानगी पाठकों को जोड़ती है शब्दों का अकारण आना बिम्बो को उकेरना कभी कभी कथ्य में स्पीड ब्रेकर का काम करता है।

मुहावरों का प्रयोग करने का अच्छा प्रयास है लेकिन कहीं कहीं वे अनावश्यक प्रतीत हुए।

कुछ लघुकथाओं में शब्दों व शीर्षक का दुहराव हुआ है ।  इस तरह के शब्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

निर्जला, सुगंधित पुष्प दोनों ही एक ही तथ्य हैं लेकिन अलग शीर्षक के नाम से लिखी गई है हालाँकि इसकी संवेदना  सकारात्मक संदेश देती है। कई लघु कथाओं में व्यंग्य का तड़का भी है जो आज के राजनीतिक माहौल की पोल खोलता है।

तपता बदन  वर्तमान परिपेक्ष में विवशता का आइना है।उसी तरह मालकिन और स्वामी दोनों के कथ्य समान है किन्तु आवरण अलग। सहभागिता मित्रों के रिश्ते में पड़ी अवांछित सच्चई को बयां करती है।  लघुकथा का सुन्दर संग्रह है।

इस बात को इंगित करना चाहूंगी कि बिम्बो में कहना अच्छी बात है  लेकिन कई बार अकारण जन्मे बिम्ब या शब्द किरकिरी का काम भी करते है। कई बार ऐसे वास्तविक परिपेक्ष से भिन्न नजर आते हैं। इस तरह की शब्द की रवानगी में अकारण  बाधा उत्पन्न करते हैं। भाषा का सौंदर्य और उसके अलंकार  ही  किसी भी प्रस्तुति में चार चाँद लगाते हैं लेकिन भाषा की अशुद्धियां उसके सौंदर्य को कम करती  हैं।

कुछ शब्दों का कई लघु कथाओं में कई बार प्रयोग हुआ है जैसे खारापन, यह दोहराव कहीं कहीं पैबंद सा प्रतीत हुआ है।  उसकी आवश्यकता नहीं थी।इसी तरह  बात का हल लहलहाने लगा , भूख से लथपथपत्र की सिलवटें, सिलवटों का समंदर ,  इसमें विरोधाभास है इस तरह के शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए क्योंकि सिलवटों का समुन्दर नहीं होता है। भाषा अलंकार की त्रुटियों से  पठनीय गेयता में बिखराव नज़र आता है।  लेखक को टंकण त्रुटि  और उसके प्रस्तुतिकरण पर ध्यान देना चाहिए।

पत्थर पर बुवाई लघुकथा संग्रह वाक़ई में समाज की कुरीतियों पर जड़ से उखाड़ने में बुवाई का काम करेगा।सभी लघुकथाएं अपना संदेश देने में सफल रही है।विजय जी अधिवक्ता भी है।  उसकी छाप उनके लेखन में भी नजर आती है। यह संग्रह पाठको को जरूर पसंद आएगा। विजय सिंह चौहान को पत्थर पर बुवाई के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं।  आपकी कलम यूँ ही अनवरत चलती रहे।   नए संग्रह के लिए बहुत बहुत बधाई।

शुभकामनाओं सहित

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© सुश्री शशि पुरवार

ईमेल – [email protected] मो 9420519803

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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