श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 5 ?

?कुएँ का पानी (काव्य संग्रह) – कवयित्री – अपर्णा कडसकर ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – कुएँ का पानी

विधा – कविता

कवयित्री – अपर्णा कडसकर

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

 

? अंतस से उपजी ‘इनबिल्ट’ कविताओं का संग्रह  श्री संजय भारद्वाज ?

सेतु का जन्म

पहले हृदय में होता है,

बाद में ही हो सकता है

प्रत्यक्ष निर्माण!

कविता मानवता का सेतु है। इस सेतु के जन्म की पृष्ठभूमि को अभिव्यक्त करने के लिए उपरोक्त पंक्तियाँ सार्थक हैं। कोरी लफ़्फ़ाज़ी नहीं होती कविता। सच्ची कविता को पहले जीना पड़ता है, तब जाकर काग़ज़ पर उतरी शब्द-लहरी, सेतु बना पाती है। समाज की सोच को वही कविता प्रभावित कर सकती है जो भीतर से जन्मती है। कवयित्री अपर्णा कडसकर की सोच और कलम में कविता ‘इनबिल्ट’ है। यह इनबिल्ट प्रस्तुत कविता संग्रह ‘कुएँ का पानी’ में यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता है।

यद्यपि कवयित्री कहती है,‘मुझे नहीं, मेरी कविता को जानो’ पर कविता को जानना, कवि को जानना होता है। व्यक्तित्व का परिचय हैं शब्द। भीतर और बाहर अंतर हो तो अंतस से नहीं उपजती कविता। जो कविता कवि के अंतस से नहीं उपजती, वह पाठक के अंतस को बेधती भी नहीं। कृत्रिम रूप से शब्दों की जुगत द्वारा हिज्जों की मदद से खड़ी कर भी ली जाए कविता तो ऐसी कृति संकर प्रजाति के फल-सी होती है, सुडौल, चटक पर बेस्वाद।

कविता, विशेषकर अतुकांत कविता में चमत्कृत करने की क्षमता होती है। घने बादलों की मूसलाधार बारिश के बाद सहसा इंद्रधनुष-सा प्रकट होता है कवित्व। यही चमत्कारी कवित्व अपर्णा की कुछ रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। यथा-

दुनिया कभी सर पे बिठा लेती है,

कभी ज़मीन पर पटक देती है,

लेकिन दुनिया छोड़ कर

कोई नहीं जाना चाहता,

…तुम मेरी दुनिया हो!

रचना की अंतिम पंक्ति काव्य का रस है। यह पंक्ति न केवल चमत्कृत करती है वरन रचनाधर्मी की बहुआयामी प्रतिभा को भी प्रकट करती है। प्रत्येक पाठक, अपने अनुभव जगत के आधार पर इस पंक्ति में अपने जीवन-दर्शन का दर्शन कर सकता है।

कविता का आलेख आरोही होना चाहिए। वैचारिक उधेड़बुन को मथकर नवनीत निकालने की इच्छा रखने वाले कवि की कविता अपनी यात्रा की दिशा, मार्ग और गंतव्य को लेकर स्पष्ट होती है। यह स्पष्ट-भाव रचना को उत्कर्ष पर ले जाता है। बानगी स्वरूप एक रचना का आरंभ बिंदु देखिए-

मुझे पता नहीं था

कोई आसमान होता है!…

इसी कविता का उत्कर्ष देखिए-

मुझे पता नहीं था

ऐसे भी कोई आसमान होता है!

कवयित्री अपने समय की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों में दख़ल रखती हैं। बिकाऊ विषयों विशेषकर स्त्री की दैहिकता को विषय बनाकर चर्चित होने की वृत्ति हो या इसके ठीक उलट स्त्री की सहज स्वतंत्रता को स्वच्छंदता निरूपित करने की मानसिकता हो, समाज की विभिन्न प्रकार की सोच के कटाक्ष झेलती कविता, कटाक्ष से ही प्रखर उत्तर देती है-

नहीं होगी मेरी कविता में

पुरुषों से अधिक बुद्धिमत्ता,

……….

स्त्री के लिए तथाकथित

अशोभनीय, अकल्पित,

असराहनीय, असाहित्यिक,

और हाँ अपौरुषेय कुछ भी,

नहीं मिलेगा कोई चिह्न

मेरे मनुष्य होने का,

नहीं होगी कविता बदनाम

 ….निश्चिंत रहो!

बदले काल में भी  लड़की  की ‘पौरुषेय’ परिभाषा को धता बताती लड़कियों में कवयित्री अपना प्रतिबिम्ब देखती हैं-

मुझे पसंद हैं लडकियाँ ,

थोड़ा डर-डरके ही सही

जो जीती हैं

मस्त, मज़ेदार ज़िंदगी

खुद के साथ,

अलग स्वतंत्र दुनिया में

बिलकुल मेरे जैसी…!

हिंदी आंदोलन परिवार में हमने एक सूत्र दिया है- ‘ जो बाँचेगा-वही रचेगा, जो रचेगा-वही बचेगा।’ रचने के लिए अनिवार्य है बाँचना। पुस्तकों से लेकर मनुष्य और मनुष्येतर जो कुछ है, उसे भी बाँचना। यह वाचन कवयित्री के सृजन में परिलक्षित होती है। यही कारण है कि चंद्रकांत देवल की पुस्तक से माधवी को जानकर उस पर आधारित कविताएँ हों, परवीन शाकिर से प्रेरित रचनाएँ हों, अमृता प्रीतम के प्रेम को समझने का प्रयास हो, अरुणा शानबाग की अमानवीय त्रासदी हो, स्त्री की वेदना और चेतना के विविध स्वर हों, साहित्यिक जगत के आडम्बर हों, किन्नरों के प्रश्न हों, पर्यावरण विमर्श हो, प्रेम के रंग हों, कल्पना हो या यथार्थ, निराशा हो या जिजीविषा, सभी कुछ अपर्णा कडसकर के कवित्व की परिधि में आता है। माधवी के संदर्भ में स्थापित मूल्यों की दारुण शोकांतिका द्रष्टव्य है-

निष्काम स्त्रियों को

यही फल मिलता है कि

वे निर्फल रह जाती हैं..!

अपर्णा कडसकर की यह पहली पुस्तक है। पुस्तकों की संख्या मायने नहीं रखती। शिल्प में सुघड़ता, भाव में अबोधता और कहन में परिपक्वता हो तो प्रश्नों के बीच प्रसूत होती कविता, प्रश्नों का उत्तर बन जाती है, औरत की तरह। बस इन उत्तरों को पढ़ने, समझने की व्यापक दृष्टि पाठक में होनी चाहिए। बकौल कवयित्री-

प्रश्नोें के बीच ही

पैदा होती हैं औरतें,

औरतों को पता  होते हैं

उनके जवाब,

बस वे जवाब नहीं देती!

साहित्यिक जगत में अपर्णा कडसकर की उम्मीद जगाती कविताओं का स्वागत है। अनेकानेक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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