श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 9 ?

?बात इतनी सी सै!लेखक- डॉ. रमेश मिलन  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक- बात इतनी सी सै!

विधा- लघु नाट्य संग्रह

लेखक- डॉ. रमेश मिलन

प्रकाशन- आकाशगंगा पब्लिकेशन, दिल्ली

? धाराप्रवाह धारावाहिक  श्री संजय भारद्वाज ?

देखना, बोलना, सुनना मनुष्य जीवन में अनुभूति और अभिव्यक्ति के अभिन्न अंग हैं। यही कारण है कि मनुष्य देखा, बोला, सुना, प्राय: अपने संगी-साथियों के साथ साझा करता है। देखने, बोलने, सुनने का साझा रूप है नाटक। वस्तुत: जीवन के प्रसंगों और घटनाओं का रेपलिका है नाटक। मनुष्य की भावनाओं से व्यापक अंतरंगता ने भरतमुनि से हज़ारों वर्ष पूर्व नाट्यशास्त्र की रचना करवाई। पृथ्वी पर जीवन के प्रादुर्भाव के साथ ही सृष्टि के रंगमंच पर पात्रों की आवाजाही त्रिकाल सत्य है। इस सत्य को व्यक्त करते हुए शेक्सपियर ने लिखा, ‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

रंगकर्म अथवा नाटक अपने आरंभिक समय में लोकनाट्य के रूप में उभरा। कालांतर में सभागारों तक पहुँचा। समय ने करवट ली और और दूरदर्शन के धारावाहिकों के रूप में विकसित हुआ नाटक।

डॉ. रमेश गुप्त ‘मिलन’ द्वारा लिखित  ‘बात इतनी सी सै’, विभिन्न विषयों पर दूरदर्शन के लिए लिखे अलग-अलग लघु नाट्यों का संग्रह है।

इन धारावाहिकों या एपिसोड का लेखन काल लगभग साढ़े तीन दशक पुराना है। स्वाभाविक है कि तत्कालीन समाज की भाषा, सोच, मूल्य, ऊहापोह जैसे अनेक बिंदु इनमें दृष्टिगोचर होते हैं। यही लेखन की कसौटी भी है जिस पर  लेखक खरा उतरता है।

सच्चा साहित्य वह है जो त्रिकाल तक अपने दृष्टि का विस्तार कर सके। उसकी आँखों में समकालीनता का प्रकाश हो, साथ ही अंतस में सार्वकालिकता का अखंड दीप भी प्रज्ज्वलित हो रहा हो। भूत, भविष्य और वर्तमान में प्रासंगिक बने रहना, लेखन की बड़ी उपादेयता है।

नाट्यलेखन के कुछ तत्व एवं सूत्र हैं। कथावस्तु, चरित्र-चित्रण, संवाद, देशकाल, शैली आदि का विस्तृत विवेचन लघु भूमिका में वांछित नहीं है। सारांश में कहना चाहूँगा कि नाटक की  प्रवहनीयता, उसकी सहजता और विश्वसनीयता भी होती है। नाटक नाटक तो हो पर नाटकीय न हो तो लेखन सफल है। इस आधार पर संग्रह के धारावाहिक सफल हैं।

इस सफलता की एक बानगी है, शादी, ब्याह से लौटने के बाद मिठाई और पकवान की विविधता और स्वाद पर बातें करना। इसी तरह बहू का सास के  पैर दबाना तत्कालीन जीवन मूल्यों की ओर संकेत करता है। “लड़की जैसे हीरा और तू हीरे की जौहरी..” जैसे संवाद अपने इर्द-गिर्द एवं परिवेश के लगते हैं। धारावाहिक के पात्र स्नेह, सम्मान, खीज, मतभेद सभी  जीते हैं। रिश्ते, सम्मानजनक सीमा का पालन करते हैं। इसके चलते संबंध आयातित नहीं लगते। वर्तमान में अनेक धारावाहिकों में सास-बहू एक दूसरे के विरुद्ध जानलेवा षड्यंत्र करते दीखती हैं। ऐसे में  एक साथ बैठकर धारावाहिक देखती सास और बहू दोनों के मन में यह प्रश्न उठता है कि ये कौनसी दुनिया के रिश्ते हैं? संबंध की नींव षड्यंत्र नहीं विश्वास होती है। ‘इतनी सी बात’ के पात्र इस विश्वास का निर्वाह करते हैं।

अलबत्ता नये रिश्ते जोड़ते समय आदमी के भीतर का लोभ, अपना लाभ तलाशता है। “एक हज़ार गज़ में दोमंजिला मकान,… पाँच सौ बीघा जमीन, एक लाख नगद दिलवा दूँगा,… घर भर देगा”,  जैसे संवाद इस लोभ को मुखर करते हैं। आदमी ऊपरी तौर पर आदर्शों की कितनी ही बात कर ले लेकिन निजी लाभ की स्थिति बनते ही सुविधा के गणित पर आ जाता है।  “क्या मैं दुनिया से न्यारी हूँ..” इस सुविधा का  प्रतिनिधि प्रस्तुतिकरण है। “..ब्याह शादी के कमीशन लेकर नहीं खाया करते../ अपना लोक-परलोक मत बिगाड़ना…” जैसे संवाद भारतीय दर्शन विशेषकर ग्रामीण और छोटे शहरों में भीतर तक पैठे सांस्कृतिक मूल्यों की सहज अभिव्यक्ति हैं।

ये धारावाहिक दूरदर्शन के लिए लिखे गए थे। अतः  इनके माध्यम से सरकारी नीतियों और योजनाओं का प्रचार-प्रसार होना स्वाभाविक है। “…पढ़ाई गाँव में इस्तेमाल करूँगा../ नए तौर-तरीके इस्तेमाल करूँगा..” जैसे संवाद इसके उदाहरण हैं।  “लड़का 21 बरस का, लड़की 18 बरस की न हो तो कानून में जुर्म है” यह वाक्य भी दहेज की मानसिकता के विरुद्ध जनजागरण के सरकार के प्रयासों और  कानून की जानकारी कथासूत्र में पिरोकर देता है।

इन धारावाहिकों का लेखन साँचाबद्ध एवं धाराप्रवाह है। यूँ भी धाराप्रवाह न हो तो धारावाहिक कैसा? कथासूत्र में ‘वॉट नेक्स्ट’ अर्थात ‘आगे क्या घटित होगा’ का भाव होना अनिवार्य तत्व है। इस संग्रह में यह भाव

पाठक की उत्कंठा को बनाए रखता है।

‘बात इतनी सी सै’ की बात दूर तक जाने में सक्षम है। आशा है जिज्ञासु पाठकों और इस क्षेत्र विशेषकर संहिता लेखन में काम कर रहे  नवोदितों के लिए यह संग्रह उपयोगी सिद्ध होगा।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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