श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 14 ?

? एकलव्य (खण्डकाव्य)– कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- एकलव्य

विधा- खण्डकाव्य

कवि- मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? पारंपरिक पर युगधर्मी रचना  श्री संजय भारद्वाज ?

इतिहास और पुराण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दिखने में एक जैसे पर दोनों के बीच स्पष्ट अतंर-रेखा है। इतिहास, अतीत में घट चुकी घटनाओं को प्रमाणित दस्तावेज़ो के रूप में सुरक्षित रखने का माध्यम है। दस्तावेज़ों में लेशमात्र परिवर्तन भी कठिन होता है। इसके विरुद्ध पुराण दस्तावेज़ों में विश्वास नहीं करता। फलत: इतिहास ठहरा रहता है जबकि पुराण सार्वकालिक हो जाता है।

संभावनाओं की चरम परिणिति है पुराण। यही कारण है कि पौराणिक आख्यानों की मीमांसा मनुष्य युगानुरूप करते आया है। इतिहास का ढाँचा प्रमाणों के चलते तयशुदा है, पुराण का ‘स्केलेटन’ व्यक्ति अपनी वैचारिकता और कल्पना के आधार पर बदलता रहता है।

मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ का खण्डकाव्य ‘एकलव्य’ स्केलेटन का ताज़ा परिवर्तित रूप है। इसमें समकालीन जीवनमूल्यों के आधार पर एकलव्य कथा की मीमांसा की गई है।काव्यशास्त्र में दी गई कल्पना की छूट के आधार पर प्रचलित तथ्यों से छेड़छाड़ किये बिना गुरु द्रोणाचार्य का बचाव भी किया गया है।

परंपरा और विधा के शिल्प के अनुरूप अनेक चिंतन सूत्र इस खण्डकाव्य में दिखते हैं। जाति व्यवस्था की तार्किक मीमांसा करते हुए कवि लिखता है-

वंश कुल नहीं जाति कहाती, जाति उसका गुण है।

विष की जाति पाप, पीयूष की जाति पुण्य है।

विवेकहीन विद्या भस्मासुर को जन्म देती है। भारतीय संस्कृति का ये उद्घोष कुछ यों शब्द पाता है-

विद्या विवेक बिन आएगी।

जग में अशान्ति फैलाएगी।  

इसी क्रम में जन संहारक आविष्कार की भी निंदा की गई है।

अनुशासन इस रचना की प्राणवायु है। कवि की सैनिक पृष्ठभूमि ने इस विचार के विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। कवि अनुशासन को जीवन का आभूषण मानता है-

अनुशासन जीवन का भूषण।

अनुशासन जीवन का पोषण।

प्रकृति अनुशासन से बंधी हुई है। सूर्योदय से पुन: सूर्योदय तक के प्राकृतिक किया-कलाप इसके साक्षी हैं-  

प्रकृति भी बँधी अनुशासन में, अपवाद बहुत कम होता है।

दिवस में जन्तु रत रहता, रजनी में कैसे सोता है।

अनुशासन केवल प्रजा पर नहीं, राजा पर भी समान रूप से लागू होता है। दोनों को अपनी-अपनी सीमा में रहने की सलाह दी गई है-

राजा-प्रजा अनुशासित हों।

सीमा के अन्दर भाषित हों।

असमंजम की स्थिति में गुरु द्रोण द्वारा अपने मन के गुरु से संवाद अर्थात् स्वसंवाद का प्रसंग है। यह प्रसंग ‘अहं ब्रह्यास्मि’ के सत्य को गहराई से रेखांकित करने का प्रयास करता है।

अपनी विचारधारा और कल्पना के तरकश में रखे तर्क के तीरों की सहायता से कवि ने द्रोणाचार्य को महिमा मण्डित किया है। एकलव्य का अंगूठा कटवाने को भी न्यायोचित ठहराया है। ये तार्किकता पाठक के लिए अदरक के समान है जो किसी के लिए पाचक है तो किसी के लिए वायु का कारक। निर्णय अपनी प्रकृति अनुरूप पाठक को स्वयं करना है।

खण्डकाव्य गुरु की महिमा के गान से ओतप्रोत है। वंदना के सर्ग में माँ को भी विशेष मान दिया गया है। नायक एकलव्य का वर्णन कुछ स्थानों पर खण्डकाव्य के पारंपरिक शिल्प के चलते अतिरंजना का शिकार हुआ है।

प्रशंसनीय है कि एकलव्य के सामाजिक परिवेश का वर्णन करते हुए कवि ने संथाली रीति-रिवाज़ों  का ध्यान रखा है। तथापि इनके वर्णन में आदिवासी और शहरी समाज के रिवाज़ों का मेल परिलक्षित होता है।

कवि की भाषा में प्रवाह है, आँचालिकता है, परंपरा का बोध है, नवीनता का शोध है। उसकी अपनी विचारधारा है, अपने तर्क हैं अपनी शैली है। इन सबके बल पर कवि अपनी बात प्रभावी ढंग से कहने में सफल रहा है।

‘जितना छोटा होगा, उतना अधिक पढ़ा जाएगा’ के आधुनिक जीवनमूल्यों के अनुरूप ये रचना लिखी गई प्रतीत होती है। इसलिए ‘एकलव्य’ परंपरा का निर्वाह करता युगधर्मी लघु खण्डकाव्य कहा जाएगा। 

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments