श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)
संजय दृष्टि – समीक्षा का शुक्रवार # 16
मीराबाई से वार्तालाप — लेखिका- सुश्री रीटा शहाणी समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज
पुस्तक का नाम- मीराबाई से वार्तालाप
विधा- लघु उपन्यास
लेखिका- रीटा शहाणी
प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे
नींद उड़ानेवाली स्वप्नयात्रा ☆ श्री संजय भारद्वाज
‘मीराबाई से वार्तालाप’, लेखिका रीटा शहाणी का अपने प्रतिबिंब से संवाद है। शीशमहल में दिखते जिस प्रतिबिंब की बात उन्होंने की है, वह शीशमहल लेखिका के भीतर भी कहीं न कहीं बसा है। अंतर इतना है कि कथा का शीशमहल जीव को प्राण देने के लिए विवश कर देता है जबकि लेखिका के भीतर का शीशमहल नित नए प्रतिबिंबों एवं नए प्रश्नों को जन्म देता है। अपने आप से संघर्ष को उकसाता है, चिंतन को विस्तार देता है। ये सार्थक संघर्ष है।
वस्तुतः इस वार्तालाप को स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का संवाद भी कहा जा सकता है। नायिका का एक रूप वो है जो वह है, दूसरा वो जो वह होना चाहती हैं। यह स्वप्नयात्रा हो सकती है पर नींद मेें तय की जानेवाली नहीं, बल्कि ऐसी स्वप्नयात्रा जो लेखिका को सोने नहीं देती।
भारतीय समाज में अध्यात्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। हमारे आध्यात्मिक चिंतन में अचेतन के चित्र और अवचेतन की धारणा भीतर तक बसी है। ये चित्र और धारणाएँ शाश्वत हैं। लेखिका की मीरा, ललिता गोपी से मीरा तक की यात्रा तो करती ही है, यात्रा के उत्कर्ष में लेखिका तक भी पहुँचती है। सूक्ष्म और स्थूल का मिलन कथा की प्राणवायु है। अवचेतन के सनातन का वर्तमान से एकाकार हो जाता है। यह एकाकार, इहलोक की तमाम चौखटों की परिधि से अधिक विस्तृत है।
अपनी यात्रा को लेखिका संवाद की शैली के साथ-साथ चिंतन-मनन एवं विश्लेषण से जोड़कर रखती हैं। कहीं पात्रों के वार्तालाप से और अधिकांश स्थानों पर सपाटबयानी से वे अपने चिंतन को पाठकों के आगे ज्यों का त्यों रखती हैं।
स्वाभाविक है कि पूरी यात्रा में लेखिका, पथिक की भूमिका में हैं। पथिक होने के खतरों से वे भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए लिखती हैं, ‘ यह जानना भी आवश्यक है कि उस रास्ते की मंज़िल कौनसी होगी, अंतिम पड़ाव क्या होगा। उसे पता है कि अपना एक पग उठाने से धरती का एक अंश छोड़ना पड़ता है। पैर उठाने से धरती तो छूट जाएगी और पुन: नई धरती पर पाँव धरना पड़ेगा। कुछ प्राप्त होगा, कुछ खोना पड़ेगा।’
यात्रा में पड़ने वाले संभावित अंधेरों से चिंतित होने के बजाय वे इसे सुअवसर के रूप में लेती हैं। कहती हैं, ‘यदि देखा जाए तो हर वस्तु का जन्म अंधेरे में ही होता है, प्रात: के उजाले में नहीं। बीज अंकुरित होते हैं धरती की कोख की अंधेरी दरारों में।’
जो कुछ भौतिक रूप से पाया, वह स्थायी नहीं हो सकता, इसका भान भी है। ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं, ‘किसी प्रकार का भी आनंद अधिक काल तक नहीं टिकता। अत: वह सही अर्थ में आनंद है ही नहीं। वह तो केवल मृग- कस्तूरी का खेल है जिसकी प्रतिध्वनि हमें अन्य वस्तुओं में सुनाई पड़ती है।’
वे कृष्ण की अनुयायी हैं। अतः सिद्धांतों से परे वे कर्म में विश्वास करती हैं। जीवन को ‘लीला’-सा विस्तार देना चाहती हैं। फलतः शब्द बोलते हैं, ‘कृष्ण ने अपने को सिद्धांतों के बंधनों से मुक्त रखा है । उसने कोई रेखा नहीं खींची है। परिणामस्वरूप उसके जीवन को लीला कहा जाता है।’
लेखिका अपनी यात्रा में दीवानगी के आलम की शुरुआत ढूँढ़ती हैं। इस शुरुआत का दर्शन और तार्किक विश्लेषण देखिए, ‘पर्दा हमने खुद डाला है, अत: हमें ही हटाना है। वह पट बाह्य नेत्रों पर नहीं है । वह है हमारी आन्तरिक चक्षुओं पर। हम उसको हटाने की शक्ति रखते हैं। एक बार घूँघट हट गया तो दीवानगी का आलम आरंभ होता है।’
दीवानगी के चरम का सागर लेखिका ने अपनी गागर में समेटने का प्रयास किया है। उनकी गागर भी मीरा की गागर की भाँति तरह-तरह के भाव एवं भावनाओं से लबालब है। ‘तारी’, ‘बैत’, ‘सुर्त चढ़ना’ जैसे सिंधी शब्दों का प्रयोग हिंदी पाठकों को नया आनंदमयी विस्तार देता है। सिंधी आंचलिकता गागर के जल को सौंधी महक व मिठास देती है।
लेखिका परम आनंद की अनुभूति के साथ यात्रा के उत्कर्ष तक पहुँचना चाहती हैं। इसलिए टहनी के दृष्टांत की भाँति स्वयं को सागर को समर्पित कर देती हैं, ‘टहनी आनंदित थी, प्रफुल्लित थी। उसे कोई भी चिंता न थी क्योंकि उसने खुद को लहरों के हवाले कर दिया था।’
इस आनंदमयी यात्रा का पथिक होने के लिए समर्पण या दीवानगी पाठकों से भी अपेक्षित है-
अक्ल के मदरसे से उठ, इश्क के मयकदे में आ।
जामे पयामें बेखुदी हम नेे पिया, जो हो सो हो।
निराकार प्रेम के इस साकार शब्दविश्व में पाठक अनोखी अनुभूति से गुजरेगा, इसका विश्वास है। लेखिका को बधाई।
© संजय भारद्वाज
नाटककार-निर्देशक
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈