श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 18 ?

? मनमंथन  — कहानीकार : मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’ ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम : मनमंथन

विधा : कहानी

कहानीकार : मेजर सरजूप्रसाद ‘गयावाला’

प्रकाशन : क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? मनमंथन : बोलती-बतियाती कहानियाँ  श्री संजय भारद्वाज ?

भावनाओं का इंद्रियों के माध्यम से प्रकटीकरण, जीव में प्राण होने या उसके निष्प्राण होने को परिभाषित करता है। सुनने-सुनाने की वृत्ति सजीव सृष्टि का अनिवार्य गुणधर्म है। वैचारिक अभिव्यंजना की इस तृष्णा ने कहानी को जन्म दिया। विशेषता है कि कहानी ऐसी विधा के रूप में जानी जाती है जो कभी एकांगी नहीं होती। सुनाने वाले (या लेखक) की कामना और सुनने वाले (या पाठक) की जिज्ञासा, दोनों तत्वों का इस विधा में तालमेल होता है। इसके चलते कहानी का इतिहास मनुष्य के इतिहास जितना ही पुराना है।

सनातन संस्कृति में वेदों के बाद पुराणों का लेखन दर्शाता है कि गूढ़ ज्ञान को सरल कथाओं के माध्यम से आम आदमी तक पहुँचाया जा सकता है। उपनिषदों की रूपक कथाओं से लेकर बौद्धवाद की जातक कथाएँ इसी शृंखला की अगली कड़ी हैं। कालांतर में घटित / अघटित कई किंवदतियाँ लोककथाओं के वेश में मनुष्य के चरित्र निर्माण एवं सामाजिक जागृति का माध्यम बनीं।

‘मनमंथन’ कहानी संग्रह का अधिकांश भाग चुनिंदा भारतीय लोककथाओं का आधुनिक संस्करण है। कथाकार ने अपनी प्रस्तावना में इस बात को स्पष्ट भी किया है कि कुछ कथाएँ उसका उसका अपना सृजन है, शेष माँ से सुनी कहानियों का पुनर्लेखन है। लोककथाओं को बालसाहित्य के रूप में प्रकाशित करने का चलन भी है। इस संदर्भ में कहानीकार और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने इस लीक का अनुसरण नहीं किया। यों भी अनुभवजनित लोककथाएँ मनुष्य वेश के पथिक के लिए हर सोपान पर दिशादर्शक प्रकाशस्तम्भ का काम करती हैं।

संग्रह में समाविष्ट चौदह कहानियों में ‘आत्मसात’ सर्वाधिक प्रभावित करती है। ये ईमानदारी की धरती पर लिखी कथा है। धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को निर्वाण के चार महाद्वार मानकर समान आदर दिया गया है। संस्कृति की इस उदात्त भावना को समझे बिना ही बाद के समाज ने काम को वासना पूर्ति की परिधि तक सीमित कर दिया। ‘आत्मसात’ इस परिधि का विस्तार करती है। वासना के बेस कैम्प से उपासना के शिखर की यात्रा का मानचित्र तैयार करती है। कथा पूरी सादगी से बिना मुखौटे लगाये, बिना मुलम्मा चढ़ाए चलती है, अत: कहीं अविश्वसनीय नहीं लगती। बुजुर्ग साधु-साध्वी के मन में आजीवन पाले ब्रह्यचर्य के खण्डित होने पर कोई ग्लानिबोध न जगना, परस्पर दोषारोपण न करना, कथा को तार्किक सम्बल प्रदान करता है। कथा प्रत्यक्ष में कोई उपदेश नहीं करती पर परोक्ष में अतंर्निहित संदेश पाठक के मन पर अंकित हो जाता है।

इसके विरुद्ध ‘कुत्ते की पूँछ’ नामक कहानी है जो मात्र किस्सागोई है, किसी तरह का प्रत्यक्ष या परोक्ष संदेश नहीं देती। ‘बच्चा किसका’, रात भर अंडा पकाया फिर भी कच्चा रह गया, ‘झूठ के हाथ-पैर नहीं’, इसी श्रेणी की हल्के-फुल्के ढंग से कही गई कथाएँ हैं। ‘दुविधा,’ ‘एक वरदान,’ ‘चने की एक दाल’ विशुद्ध लोक कथाएँ हैं जिनमें विभिन्न मानवीय गुण और काल-पात्र-परिस्थिति के अनुरूप धारण किये जाने वाले धर्म की सूक्ष्म अवधारणा अंतर्निहित है। ‘कल्पना से परे’ और ‘कानाफूसी’ सीधे-सीधे अपना संदेश लेकर आती हैं। ‘नास्तिक के मुख से’ नामक लोककथा लोक में आस्था का बीज रोपने की भूमिका लेकर चलती है। ‘प्रतीक्षा’ में कहानीकार सेना के परिवेश का चित्रण करने में सफल रहा है। ‘गलतफहमी’अतिरंजित लगती है। ‘मरणोपरांत’ एक सैनिक के भावों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है।

संग्रह की विभिन्न कथाओं में समाहित विचारसूत्र चिंतन के लिए पर्याप्त संभावनाओं को अवसर प्रदान करते हैं। कुछ विचारसूत्र उल्लेखनीय हैं। यथा-आँसू पीयूष भी है और हलाहल भी…/ आँसू अंदर रहकर तूफान मचाता है पर बाहर निकलकर मरहम का काम करता है…/ गलतफहमी गांधारी है जिसकी कोख से सौ कौरव पैदा होकर महाभारत रचाएँगे और बाद में बिलखती हुई विधवाओं का रुदन और क्रंदन छोड़ जायेंगे…/ साधन एक अवसर पर साधना में सहयोग देता है तो वही साधन किसी दूसरे समय में व्यवधान उत्पन्न करने लगता है।…

लोकसाहित्य की विशेषता है कि उसके संकेत और प्रतीक रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़े होते हैं। फलत: कथ्य तुरंत पाठक तक पहुँचता है। बानगी है- प्यार में दरार आ गई, प्रेम की डोर में गाँठ पड़ गई। बाहर से पता नहीं चलता था परंतु अंदर से खीरे जैसी तीन फाँक ! …

‘मनमंथन’ में मुहावरों और लोकोक्तियों का यथेष्ट प्रयोग हुआ है। कहानियों में प्रयुक्त बिहार की आंचलिक बोली अंचल की माटी की सौंध पाठक तक पहुँचाती है। संग्रह की कथाओं में कम चरित्रों के माध्यम से कथ्य को रखा गया है। अनावश्यक प्रसंग भी ठूँसे नहीं गए हैं। ये इन कहानियों का शक्तिस्थान है।

सेना की पृष्ठभूमि की कहानियाँ अधिक प्रभावी हैं क्योंकि कथाकार के जीवन के 32 वर्ष सेना में बीते हैं। कथाकार से भविष्य में सैनिक परिवेश पर अधिक कहानियों की अपेक्षा की जानी चाहिए। कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियाँ पाठक से बोलती हैं, बतियाती हैं। यह कथाकार आशा जगाता है। उससे लम्बी दौड़ की उम्मीद की जा सकती है।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments