श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
90 के दशक की बात है। 85-86 में ग्रेजुएशन समाप्त कर आगे के जीवन का रोडमैप मस्तिष्क में तय कर चुका था। उच्चशिक्षा, लेक्चररशीप, शाम को थियेटर, लेखन और समाजसेवा। मुंबई शिफ्ट होना था और फिल्मों के लिए लिखना-अभिनय करना था। यूनिवर्सिटी के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ लेखक, निर्देशक, अभिनेता और अन्य ललित कलाओं के तमगे लगाए मन समझता था कि बस एक कदम उठाया और वामन अवतार की तरह धरती मापी।
अलबत्ता विधि का लिखा मिटता नहीं। ‘मैन प्रपोजेस, गॉड डिस्पोजेस।’ बी.एड. करते हुए ही अकस्मात विधि ने व्यापार में ढकेल दिया। सुबह 9 से रात 11 तक अथक परिश्रम का दौर आरंभ हो गया। मध्यमवर्गीय परिवार, दायित्वबोध और चुनौतियों का पहाड़। व्यापार थोड़ा स्थिर हुआ तो साप्ताहिक छुट्टी के दिन मुंबई जाकर इच्छित की दिशा में कदम आगे बढ़ाने का मन बनाया। हमारा बाज़ार गुरुवार बंद रहता था, सो मेरे लिए ‘वर्किंग डे’ में मुंबई जाकर लोगों से मिल सकने का अवसर था।
उस जमाने में एकांकी और नाटक लिखा करता था। कविता के ‘क’ से भी संपर्क नहीं हुआ था। सो अपनी एकांकियाँ और कुछ थीम (जिन्हें बाद में ‘वन लाइनर’ कहा जाने लगा) लेकर पुणे से मुंबई के चक्कर आरंभ हुए। पहली कुछ यात्राएँ निष्फल रहीं। मूल कारण था किसी से संपर्क ही न हो पाना। लोकल नेटवर्क पता नहीं था, ईस्ट-वेस्ट समझ में नहीं आता था। संबंधित स्टेशन पर उतरकर पैदल ही पता तलाशने निकल जाता था। एशियाड बसें चलती थीं। पुराना मुंबई-पुणे हाईवे था। मुंबई पहुँचने में 11 बज जाते थे। बमुश्किल कुछ घंटे हाथ में होते थे क्योंकि 4 बजे के बाद लौटना होता था ताकि अगले दिन काम पर जा सकूँ। कई बार देर होने पर देर रात लौटता, अगले दिन फिर वही दिनचर्या। ‘चप्पल घिसना’ मुहावरे का अर्थ कुछ-कुछ समझ में आने लगा था।
कुछ लोगों से मिला भी। ‘टी’ सीरिज में एक हमउम्र ने कुछ सेकंडों में एक थीम सुनी और कहा कि ऐसी एक मिलती-जुलती थीम पर हम काम कर रहे हैं, हमें कुछ अलग चाहिए। एक बार तो इंडस्ट्री के मील के पत्थर स्व. बी आर चोपड़ा के निवास स्थान तक पहुँच गया। अदालती-व्यवस्था पर मेरा नाटक ‘दलदल’ लोकप्रिय हुआ था। उसकी थीम उन्हें सुनाना चाहता था। दरबान से मालूम पड़ा कि अंदर मीटिंग चल रही है, समय लगेगा। बाद में कभी भेंट हो सकती है। अलबत्ता व्यवहार बेहद शिष्ट और उत्साहवर्द्धक था। इसके बाद व्यापार में अधिक व्यस्त होता गया। साप्ताहिक छुट्टी व्यापारिक खरीद के काम आने लगी। कभी-कभार यहाँ-वहाँ एकाध फोन करता, फिर दो-चार महीने में एक बार मुंबई यात्रा होने लगी और शनै:-शनै: बंद हो गई।
मनमोहन शेट्टी जी के उल्लेख के बिना इस यात्रा का वर्णन निरर्थक होगा। उन दिनों वे ‘अर्द्धसत्य’, ‘चक्र’ जैसी फिल्में बना चुके थे। मैं समानांतर सिनेमा का दीवाना था। मैंने उन्हें उनकी फिल्मों के संदर्भ में एक बधाई-पत्र भेजा।
आश्चर्यजनक रूप से उनका धन्यवाद का उत्तर भी आया। मुंबई की अगली यात्रा में पता तलाशते हुए मैं ‘एडलैब’ पहुँचा। शायद 11 बज रहे थे। शेट्टी जी अभी आए नहीं थे। उनके स्टाफ ने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा। साढ़े ग्यारह के लगभग मनमोहन जी आए। ऑफिस में बत्ती की। प्रार्थना के बाद कुर्सी पर बैठे और मुझे अंदर बुलाया।
मैं पहली बार किसी प्रोड्युसर के ऑफिस में बैठा था। मैंने अपने आने का प्रयोजन बताया। उन्होंने मेरे एकाध ‘वन लाइनर’ सुने। वे गंभीरता से सुनते रहे। फिर दोनों के लिए कॉफी आ गई। चुप्पी तोड़ते हुए उन्होंने बताया कि अगला प्रोजेक्ट वे श्याम बेनेगल जी के साथ कर रहे हैं। बेनेगल जी की काम करने की अपनी शैली है और उनके काम में किसी तरह की दखलअंदाज़ी नहीं की जा सकती। इसलिए तुरंत तो कुछ नहीं किया जा सकता, आगे किसी प्रोजेक्ट के समय साथ बैठा जा सकता है।
कॉफी का आखिरी घूँट पीकर मग रखते हुए बोले, ‘यू आर अ पोटेंशिअल राइटर संजय! थोड़ा घूमना पड़ेगा पर आपको इंडस्ट्री में काम मिलेगा।’ पास के किसी स्टुडिओ में अमोल पालेकर जी अपने धारावाहिक ‘कच्ची धूप’ की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने मुझे पालेकर जी से मिलने के लिए कहा। कुछ और स्टुडिओ और वहाँ चल रहे प्रॉडक्शंस के बारे में बताया। इतने बड़े व्यक्ति का यह मार्गदर्शन मुझे आश्चर्यमिश्रित सुख दे रहा था।
सुखद आश्चर्य का चरम अभी बाकी था। मुकेश दुग्गल उन दिनों थोक में फिल्में बना रहे थे। उनकी किसी नई फिल्म की दो दिन बाद लाँच पार्टी थी। उसका निमंत्रण शेट्टी जी की मेज पर था। उन्होंने निमंत्रण उठाया। अपने नाम के बाद कॉमा लगाकर मेरा नाम लिखा। बोले, ‘दुग्गल से मिलना। उनको बोलना मैंने भेजा है। वो बहुत मूवीज बना रहे हैं। होप, आपको स्टार्ट मिलेगा।’
निमंत्रण-पत्र मेरे हाथ में था और मैं अवाक था। पता नहीं शेट्टी जी का धन्यवाद भी ठीक से कर पाया या नहीं। उन्होंने गर्मजोशी से हाथ मिलाया और शुभकामनाओं के साथ विदा किया।
चढ़ते समय दो सीढ़ियाँ एक साथ चढ़ने की आदत थी। आज आनंदातिरेक में दो-दो सीढ़ियाँ एक साथ उतरा। नीचे पहुँच कर एक लंबा श्वास लिया। लगा जैसे निमंत्रण नहीं बल्कि आकाश मुट्ठी में आ गया हो। ये बात अलग है कि दायित्व, निजी आकांक्षाओं पर भारी पड़े और उस लाँच में कभी नहीं पहुँच पाया।
आज पलटकर देखता हूँ तो दिखते हैं एक अनजान शहर में अनजान व्यक्ति के लिए आगे बढ़े हाथ। अनुभव अलग-अलग हो सकते हैं पर सामान्यत: ये शहर मुंबई और हाथ मुंबईकर के होते हैं।
आज बरबस याद आए मनमोहन शेट्टी जी और मुंबई का आत्मीय अनुभव। सलाम शेट्टी साहब, सलाम मुंबई!
© संजय भारद्वाज, पुणे
(प्रात: 6:14 बजे, रविवार, 11.02.2018)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
यह सच है कि मैन प्रपोजेज गाड डिसपोजेज।पर ईश्वर जो चाहता है वो किया जाये तो सर्वोत्तम है।अप्रतिम अभिव्यक्ति।??