श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ अहं ब्रह्मास्मि ☆
अहं ब्रह्मास्मि।…सुनकर अच्छा लगता है न!…मैं ब्रह्म हूँ।….ब्रह्म मुझमें ही अंतर्भूत है।
ब्रह्म सब देखता है, ब्रह्म सब जानता है।
अपने आचरण को देख रहे हो न!…अपने आचरण को जान रहे हो न!
बस इतना ही कहना था।
थोड़े लिखे को अधिक बाँचना, सर्वाधिक आत्मसात करना।
# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।
© संजय भारद्वाज, पुणे
28.5.2020, प्रात: 10 बजे
# निठल्ला चिंतन
अहम् ब्रह्मास्मि तो ठीक है।पर,मनुष्य के आचरण ने प्रकृति की जो दशा की है, उससे वो स्वयं भुगत रहा है। गागर में सागर वाली अभिव्यक्ति।
अहं ब्रह्मास्मि की अनुभूति ही रचनाकार को परमानंद दे सकती है -अपने अस्तित्व की पहचान दे सकती है – सत्य कथन के आलोक में अभिवादन …….