श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
हम “संजय दृष्टि” के माध्यम से आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित की गई थी। कल स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं। इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका” एक विशेष महत्व रखता है। इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।
– हेमन्त बावनकर
☆ संजय दृष्टि – 1. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆
लोक अर्थात समाज की इकाई। समाज अर्थात लोक का विस्तार। यही कारण है कि ‘इहलोक’, ‘परलोक’ ‘देवलोक’, ‘पाताललोक’, ‘त्रिलोक’ जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ। गणित में इकाई के बिना दहाई का अस्तित्व नहीं होता। लोक की प्रकृति भिन्न है। लोक-गणित में इकाई अपने होने का श्रेय दहाई कोे देती है। दहाई पर आश्रित इकाई का अनन्य उदाहरण है, ‘उबूंटू!’
दक्षिण अफ्रीका के जुलू आदिवासियों की बोली का एक शब्द है ‘उबूंटू।’ सहकारिता और प्रबंधन के क्षेत्र में ‘उबूंटू’ आदर्श बन चुका है। अपनी संस्था ‘हिंदी आंदोलन परिवार’ में अभिवादन के लिए हम ‘उबूंटू’ का ही उपयोग करते हैं। हमारे सदस्य विभिन्न आयोजनों में मिलने पर परस्पर ‘उबूंटू’ ही कहते हैं।
इस संबंध में एक लोककथा है। एक यूरोपियन मनोविज्ञानी अफ्रीका के आदिवासियों के एक टोले में गया। बच्चों में प्रतिद्वंदिता बढ़ाने के भाव से उसने एक टोकरी में मिठाइयाँ भर कर पेड़ के नीचे रख दी। उसने टोले के बच्चों के बीच दौड़ का आयोजन किया और घोषणा की कि जो बच्चा दौड़कर सबसे पहले टोकरी तक जायेगा, सारी मिठाई उसकी होगी। जैसे ही मनोविज्ञानी ने दौड़ आरम्भ करने की घोषणा की, बच्चों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा, एक साथ टोकरे के पास पहुँचे और सबने मिठाइयाँ आपस में समान रूप से वितरित कर लीं। आश्चर्यचकित मनोविज्ञानी ने जानना चाहा कि यह सब क्या है तो बच्चों ने एक साथ उत्तर दिया,‘उबूंटू!’ उसे बताया गया कि ‘उबूंटू’ का अर्थ है,‘हम हैं, इसलिए ‘मैं’ हूँ। उसे पता चला कि आदिवासियों की संस्कृति सामूहिक जीवन में विश्वास रखता है, सामूहिकता ही उसका जीवनदर्शन है।
‘हम हैं, इसलिए मैं हूँ’ अनन्य होते हुए भी सहज दर्शन है। सामूहिकता में व्यक्ति के अस्तित्व का बोध तलाशने की यह वृत्ति पाथेय है। मछलियों की अनेक प्रजातियाँ समूह में रहती हैं। हमला होने पर एक साथ मुकाबला करती हैं। छितरती नहीं और आवश्यकता पड़ने पर सामूहिक रूप से काल के विकराल में समा जाती हैं।
लोक इसी भूमिका का निर्वाह करता है। वहाँ ‘मैं’ होता ही नहीं। जो कुछ हैे, ‘हम’ है। राष्ट्र भी ‘मैं’ से नहीं बनता। ‘हम’ का विस्तार है राष्ट्र। ‘देश’ या ‘राष्ट्र’ शब्द की मीमांसा इस लेख का उद्देश्य नहीं है। अंतरराष्ट्रीय मानकों ने राष्ट्र (देश के अर्थ में) को सत्ता विशेष द्वारा शासित भूभाग माना है। इस रूप में भी देखें तो लगभग 32, 87, 263 वर्ग किमी क्षेत्रफल का भारत राष्ट्र्र है। सांस्कृतिक दृष्टि से देखें तो इस भूमि की लोकसंस्कृति कम या अधिक मात्रा में अनेक एशियाई देशों यथा नेपाल, थाइलैंड, भूटान, मालदीव, मारीशस, बाँग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, म्यांमार, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, तिब्बत, चीन तक फैली हुई है। इस रूप में देश भले अलग हों, एक लोकराष्ट्र है। लोकराष्ट्र भूभाग की वर्जना को स्वीकार नहीं करता। लोकराष्ट्र को परिभाषित करते हुए विष्णुपुराण के दूसरे स्कंध का तीसरा श्लोक कहता है-
उत्तरं यत समुद्रस्य हिमद्रेश्चैव दक्षिणं
वर्ष तात भारतं नाम भारती यत्र संतति।
अर्थात उत्तर में हिमालय और दक्षिण में सागर से आबद्ध भूभाग का नाम भारत है। इसकी संतति या निवासी ‘भारती’ (कालांतर में ‘भारतीय’) कहलाते हैं।
……….क्रमशः
© संजय भारद्वाज, पुणे
रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
बहुत सुंदर आलेख ,गहन अध्ययन और मीमांसा के साथ लिखा गया विचारात्मक विषय।
उबूंटू यानि हम हैं इसलिए मैं हूँ के विस्तृत अर्थ की मीमांसा करता अप्रतिम लेख।