हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ बिन पानी सब सून – 2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆ बिन पानी सब सून – 2 ☆

मनुष्य को ज्ञात चराचर में जल की सर्वव्यापकता तो विज्ञान सिद्ध है। वह ऐसा पदार्थ है जो ठोस, तरल और वाष्प तीनों रूपों में है। वह जल, थल और नभ तीनों में है। वह ब्रह्मांड के तीनों घटकों का समन्वयक है। वह ‘पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते  ’का प्रमाणित संस्करण है। हिम से जल होना, जल से वायु होना और वायु का पुनः जल होकर हिम होना, प्रकृति के चक्र का सबसे सरल और खुली आँखों से दिखने वाला उदाहरण है। आत्मा की नश्वरता का आध्यात्मिक सिद्धांत हो या ऊर्जा के अक्षय रहने का वैज्ञानिक नियम, दोनों को  अंगद के पांव -सा प्रतिपादित करता-बहता रहता है जल।

भारतीय लोक जीवन में तो जल की महत्ता और सत्ता अपरंपार है। वह प्राणदायी नहीं अपितु प्राण है।  वह प्रकृति के कण-कण में है। वह पानी के अभाव से निर्मित मरुस्थल में पैदा होनेवाले तरबूज के भीतर है, वह खारे सागर के किनारे लगे नारियल में मिठास का सोता बना बैठा है। प्रकृति के समान मनुष्य की देह में भी दो-तिहाई जल है। जल जीवनरस है। जल निराकार है। निराकार जल, चेतन तत्व की ऊर्जा  धारण करता है। जल प्रवाह है। प्रवाह चेतना को साकार करता है। जल परिस्थितियों से समरूप होने का अद्भुत उदाहरण है। पात्र मेंं ढलना उसका चरित्र और गुणधर्म है। वह ओस है, वह बूँद है, वह झरने में है, नदी, झील, तालाब, पोखर, ताल, तलैया, बावड़ी, कुएँ, कुईं  में है और वह सागर में भी है। वह धरती के भीतर है और धरती के ऊपर भी है। वह लघु है, वही प्रभु है। कहा गया है-‘आकाशात पतितं तोयं यथा गच्छति सागरं।’ बूँद  वाष्पीकृत होकर समुद्र से बादल में जा छिपती है। सागर बूँद को तरसता है तो बादल बरसता है और लघुता से प्रभुता का चक्र अनवरत चलता है।

लोक का यह अनुशासन ही था जिसके चलते  कम पानी वाले अनेक क्षेत्रों विशेषकर राजस्थान में घर की छत के नीचे पानी के हौद बनाए गए थे। छत के ढलुआ किनारों से वर्षा का पानी इस हौद में एकत्रित होता। जल के प्रति पवित्रता का भाव ऐसा कि जिस छत के नीचे जल संग्रहित होता, उस पर शिशु  और माँ या युगल का सोना वर्जित था। प्रकृति के चक्र के प्रति श्रद्धा तथा ‘जीओ और जीने दो’  की सार्थकता ऐसी कि कुएँ के चारों ओर हौज बाँधा जाता। पानी खींचते समय हरेक से अपेक्षित था कि थोड़ा पानी इसमें भी डाले। ये हौज  पशु-पक्षियों के लिए मनुष्य निर्मित पानी के स्रोत थे। पशु-पक्षी इनसे अपनी  प्यास  बुझाते। पुरुषों का स्नान कुएँ के समीप ही होता। एकाध बाल्टी पानी से नहाना और कपड़े धोना दोनों काम होते। इस प्रक्रिया में प्रयुक्त पानी से आसपास घास उग आती। यह घास पानी पीने आनेवाले मवेशियों के लिए चारे का काम करती।

पनघट तत्कालीन दिनचर्या की धुरि था। नंदलाल और राधारानी के अमूर्त प्रेम का मूर्त प्रतीक पनघट, नायक-नायिका की आँखों मेें होते मूक संवाद का रेकॉर्डकीपर पनघट, पुरुषों के राम-श्याम होने का साझा मंच पनघट और स्त्रियों के सुख-दुख के कैथारसिस के लिए मायका-सा पनघट ! पानी से भरा पनघट आदमी के भीतर के प्रवाह  का विराट दर्शन था।  कालांतर में  सिकुड़ती सोच ने पनघट का दर्शन निरपनिया कर दिया। कुएँ का पानी पहले खींचने को लेकर सामन्यतः किसी तरह के वाद-विवाद का उल्लेख नहीं मिलता। अब सार्वजनिक नल से पानी भरने को लेकर उपजने वाले कलह की परिणति हत्या में होने  की खबरें अखबारों में पढ़ी जा सकती हैं। स्वार्थ की विषबेल और मन के सूखेपन ने मिलकर ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं कि गाँव की प्यास बुझानेवाले स्रोत अब सूखे पड़े हैं। भाँय-भाँय करते कुएँ और बावड़ियाँ  एक हरी-भरी सभ्यता के खंडहर होने के साक्षी हैं।

हमने केवल पनघट नहीं उजाड़े, कुओं को सींचनेवाले तालाबों और छोटे-मोटे प्राकृतिक स्रोतों को भी पाट दिया। तालाबों की कोख में रेत-सीमेंट उतारकर गगनचुम्बी इमारतें खड़ी कर दीं।  बाल्टी से पानी खींचने की बजाय मोटर से पानी उलीचने की प्रक्रिया ने मनुष्य की मानसिकता में भयानक अंतर ला दिया है। बूँद-बूँद सहेजनेवाला समाज आज उछाल-उछाल कर पानी का नाश कर रहा है। दस लीटर में होनेवाला स्नान शावर के नीचे सैकड़ों लीटर पानी से खेलने लगा है। पैसे का पीछा करते आदमी की आँख में जाने कहाँ से दूर का न देख पाने की बीमारी-मायोपिआ उतर आई है। इस मायोपिआ ने शासन और अफसरशाही की आँख का पानी ऐसा मारा कि  सूखे से जूझते क्षेत्र में नागरिक को अंजुरि भर पानी उपलब्ध कराने की बजाय क्रिकेट के मैदान को लाखों लीटर से भिगोना ज्यादा महत्वपूर्ण समझा जाने लगा है।

क्रमशः …… 3

©  संजय भारद्वाज

# आपका दिन सृजनशील हो।

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603