श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
हम “संजय दृष्टि” के माध्यम से आपके लिए कुछ विशेष श्रंखलाएं भी समय समय पर प्रकाशित करते रहते हैं। ऐसी ही एक श्रृंखला दीपोत्सव पर “दीपावली के तीन दिन और तीन शब्ददीप” तीन दिनों तक आपके चिंतन मनन के लिए प्रकाशित की गई थी। 31 अक्टूबर 2019 को स्व सरदार वल्लभ भाई पटेल जी का जन्मदिवस था जो राष्ट्रीय एकता के प्रतीक हैं। इस अवसर पर श्री संजय भारद्वाज जी का आलेख “राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका” एक विशेष महत्व रखता है। इस लम्बे आलेख को हम कुछ अंकों में विभाजित कर आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं। हमें पूर्ण विश्वास है आप इसमें निहित विचारों को गंभीरता पूर्वक आत्मसात करेंगे।
– हेमन्त बावनकर
☆ संजय दृष्टि – 5. राष्ट्रीय एकात्मता में लोक की भूमिका ☆
एक आख्यान के अनुसार व्यास जी जब संन्यास के लिए वन जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नग्न शुकदेव को देखकर वस्त्र धारण नही किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिए। व्यास जी ने आश्चर्य करते हुए जब पूछा तो उन स्त्रियों ने जवाब दिया कि आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री पुरुष का भेद बना हुआ है, पर आपके पुत्र की दृष्टि में यह भेद नही है। आपमें वासना शेष है, आपके पुत्र में उपासना अशेष है।
वासना द्वैत का प्रतीक है, उपासना अद्वैत जगाती है। लोक जैसा होने के लिए मनसा वाचा कर्मणा निर्वसन होना होगा। लोक में कुछ भी कृत्रिम नहीं है।
लोक सहजता से जीवन जीता है। लोकसंस्कृति में श्लील-अश्लील की रेखा विभाजक और विघातक रूप में नहीं है। यहाँ किसी कथित अश्लील चुटकुले पर एक स्त्री भी उतने ही खिलखिलाकर हँस लेती है जितना एक पुरुष। लोक स्त्री विमर्श के ढोल नहीं बजाता पर युवतियों को स्वयंवर का अवसर देता है, अपना साथी चुनने के लिए युवक-युवतियों के लिए ‘घोटुल’ बनाता है। 1600 ईस्वी में गोस्वामी जी के दोहे ‘ ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारि, सकल ताड़ना के अधिकारी’ में ‘ध्यान देने योग्य’ के बजाय ‘ताड़ना’ का अर्थ प्रताड़ना बताने वाले भूल गये कि द्वापरनरेश श्रीकृष्ण ने अपनी बहन सुभद्रा को अर्जुन के साथ भाग जाने की सलाह दी थी। पनघट पर महिलाओं का साथ जाना प्रचलन में रहा। सुरक्षा के साथ-साथ, साथ बतियाने, संवाद करने, मन की गाँठें खोलने वाला घाट याने पनघट। पनघट याने स्त्रियों के भीतर जमे को तरल कर प्रवाहित होने, उन्हें हल्का करने का स्पेस। आज आधुनिकता में भी अपने ‘स्पेस’ के लिए संघर्ष करती स्त्री को लोक ‘गारियों’ के माध्यम से हर किसी पर टिप्पणी कर विरेचन का अवसर प्रदान करता है।
लोक के उदात्त भाव को विदेशी लेखकों ने भी रेखांकित किया। कुछ कथन द्रष्टव्य हैं-
“भारत मानव जाति का पालना है, मानवीय वाणी का जन्म स्थान है, इतिहास की जननी है और विभूतियों की दादी है और इन सब के ऊपर परम्पराओं की परदादी है। मानव इतिहास में हमारी सबसे कीमती और सबसे अधिक अनुदेशात्मक सामग्री का भण्डार केवल भारत में है!’
– मार्क ट्वेन (लेखक, अमेरिका)
‘यदि पृथ्वी के मुख पर कोई ऐसा स्थान है जहां जीवित मानव जाति के सभी सपनों को बेहद शुरुआती समय से आश्रय मिलता है, और जहां मनुष्य ने अपने अस्तित्व का सपना देखा, वह भारत है।!‘
– रोम्या रोलां (फ्रांसीसी विद्वान)
‘हम सभी भारतीयों का अभिवादन करते हैं, जिन्होंने हमें गिनती करना सिखाया, जिसके बिना विज्ञान की कोई भी खोज संभव नहीं थी।!‘
– एल्बर्ट आइनस्टाइन (सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी, जर्मनी)
‘यदि हम से पूछा जाता कि आकाश तले कौन सा मानव मन सबसे अधिक विकसित है, इसके कुछ मनचाहे उपहार क्या हैं, जीवन की सबसे बड़ी समस्याओं पर सबसे अधिक गहराई से किसने विचार किया है और इसकी समाधान पाए हैं तो मैं कहूंगा इसका उत्तर है भारत।‘
– मेक्स मुलर (जर्मन विद्वान)
‘भारत ने शताब्दियों से एक लम्बे आरोहण के दौरान मानव जाति के एक चौथाई भाग पर अमिट छाप छोड़ी है। भारत के पास उसका स्थान मानवीयता की भावना को सांकेतिक रूप से दर्शाने और महान राष्ट्रों के बीच अपना स्थान बनाने का दावा करने का अधिकार है। पर्शिया से चीनी समुद्र तक साइबेरिया के बर्फीलें क्षेत्रों से जावा और बोरनियो के द्वीप समूहों तक भारत में अपनी मान्यता, अपनी कहानियां और अपनी सभ्यता का प्रचार प्रसार किया है।‘
– सिल्विया लेवी (फ्रांसीसी विद्वान)
‘भारत ने चीन की सीमापार अपना एक भी सैनिक न भेजते हुए बीस शताब्दियों के लिए चीन को सांस्कृतिक रूप से जीता और उस पर अपना प्रभुत्व बनाया है।‘
– हु शिह (अमेरिका में चीन के पूर्व राजदूत)
दुनिया के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां एक बार जाने के बाद वे आपके मन में बस जाते हैं और उनकी याद कभी नहीं मिटती। मेरे लिए भारत एक ऐसा ही स्थान है। जब मैंने यहां पहली बार कदम रखा तो मैं यहां की भूमि की समृद्धि, यहां की चटक हरियाली और भव्य वास्तुकला से, यहां के रंगों, खुशबुओं, स्वादों और ध्वनियों की शुद्ध, संघन तीव्रता से अपने अनुभूतियों को भर लेने की क्षमता से अभिभूत हो गई। यह अनुभव कुछ ऐसा ही था जब मैंने दुनिया को उसके स्याह और सफेद रंग में देखा, जब मैंने भारत के जनजीवन को देखा और पाया कि यहां सभी कुछ चमकदार बहुरंगी है।
– किथ बेलोज़ (मुख्य संपादक, नेशनल जियोग्राफिक सोसाइटी)
‘ मैं भारत के अनेक राज्यों में घूमा. वहाँ मैंने एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो भिखारी हो, चोर हो. ऐसी विलक्षण सम्पदा देखी है मैंने इस देश में, ऐसे उच्चतम मौलिक विचार, इतने काबिल/गुणी व्यक्ति देखे हैं कि मुझे नहीं लगता कि हम कभी इस देश को गुलाम बना पाएँगे, जब तक कि हम इस देश की अध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत को नष्ट ना कर दें, जो इस देश की वास्तव में रीढ़ है।
और इसलिए मेरा प्रस्ताव है कि इस देश की वर्षों पुरानी ‘शिक्षा प्रणाली‘ और यहाँ की ‘संस्कृति‘ को बदल दिया जाए, क्यूंकि जब भारतीय ये सोचेंगे कि जो कुछ भी विदेशी है और ब्रिटेन का है, वह अच्छा और बेहतर है उनके स्वयं से, तब ये भारतीय अपना अपनी पौराणिक संस्कृति और स्वाभिमान को खो बैठेंगे और तब ये लोग वो बन जाएंगे जो हम उन्हें बनाना चाहते हैं, एक वास्तविक गुलाम भारत !‘
– भारत का दौरा करने के बाद 1835 में ब्रिटिश संसद में दिए गये अँग्रेज मैकाले के भाषण के अंश। ( ये दस्तावेज संग्रहित हैं )
भारत में बीस लाख देवी-देवता हैं और वे सभी की पूजा करते हैं। धर्म के मामले में बाकी सभी देश कंगाल हैं, भारत ही करोड़पति है।
– मार्क ट्वेन
कोई भी अध्याय जिसका आरम्भ पश्चिमी है, यदि उसे मानव जाति के विनाश में समाप्त नहीं होना है तो उसका अंत भारतीय होना ही चाहिए। इतिहास के इस बेहद खतरनाक क्षण में मानव जाति की मुक्ति का एकमात्र तरीका भरतीय तरीक है।
– डॉ. अर्नॉल्ड टोयनबी
इसी संदर्भ में महान दार्शनिक स्वामी विवेकानंद का यह कथन भी भी ज्योतिपुँज-सा है-
भारत में हजारों वर्षों से शांति पूर्वक अपना अस्तित्व बनाए रखा। यहां जीवन तब भी था जब ग्रीस अस्तित्व में नहीं आया था . . . इससे भी पहले जब इतिहास का कोई अभिलेख नहीं मिलता, और परम्पराओं ने उस अंधियारे भूतकाल में जाने की हिम्मत नहीं की। तब से लेकर अब तक विचारों के बाद नए विचार यहां से उभर कर आते रहे और प्रत्येक बोले गए शब्द के साथ आशीर्वाद और इसके पूर्व शांति का संदेश जुड़ा रहा। हम दुनिया के किसी भी राष्ट्र पर विजेता नहीं रहे हैं और यह आशीर्वाद हमारे सिर पर है और इसलिए हम जीवित हैं. . .!‘
क्रमशः…….6
© संजय भारद्वाज, पुणे
रात्रि 11:21 बजे, 21.9.19
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
सुंदर लेख!सच है स्त्रियों को मन की गांठे खोलने के लिए पनघट एक ख़ास जगह रही है।यह भी सच है कि विदेशी प्रथाओं को मानते हुए हमने हमनी संस्कृति को कहीं पीछे छोड़ आए ।अब तो लौटना ही होगा।
अपनी परंपराओं, सांस्कृतिक समृद्धि तथा प्राचीनता के लिए भारत ने सदैव विदेशियों के दिल में जगह बनाई है।हमारा कर्तव्य है कि हम उस विरासत को बचाये रखें और उसी को अपने जीवन का अंग बनायें ना कि पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण करें।हाँ, किसी भी अच्छाई को ग्रहण करने में हमें हिचकिचाना नहीं चाहिये।??