श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। )
☆ संजय दृष्टि – सृजन और धन्यवाद ☆
सृजन तुम्हारा नहीं होता। दूसरे का सृजन परोसते हो। किसीका रचा फॉरवर्ड करते हो और फिर अपने लिए ‘लाइक्स’ की प्रतीक्षा करते हो। सुबह, दोपहर, शाम, अनवरत प्रतीक्षा ‘लाइक्स’ की।
सुबह, दोपहर, शाम अनवरत, आजीवन तुम्हारे लिए विविध प्रकार का भोजन, कई तरह के व्यंजन बनाती हैं माँ, बहन या पत्नी। सृजन भी उनका, परिश्रम भी उनका। कभी ‘लाइक’ देते हो उन्हें, कहते हो कभी धन्यवाद?
जैसे तुम्हें ‘लाइक’ अच्छा लगता है, उन्हें भी अच्छा लगता है।
….याद रहेगा न?
आपका दिन सार्थक बीते।
© संजय भारद्वाज, पुणे
(भोर 5.09 बजे, 4.8.2019)
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
सही दिशा-निर्देश संजय जी ! काश ! स्त्री की पाकसंबंधी अनवरत सेवाओं को परिवारजनों द्वारा सराहा जाता , कृतज्ञता से अपनी पसंद, नापसंद व्यक्त की जाती तो किसी भी स्त्री के चेहरे की कांति द्विगुणित हो जाती ।
अन्य के रचे को फाॅरवर्ड कर स्वयं के लिए प्रशंसा बटोरने की आस रखने वालों के लिए सुंदर सीख!
स्त्री या शक्ति जिनका सृजन भी अपना,जगत जननी की अभिव्यक्ति भी अपनी, उनके परिश्रम भी अपने… उस प्रकृति को प्रणाम और धन्यवाद!