श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
संजय दृष्टि – लघुकथा- गोटेदार लहंगा
..सुनो।
…हूँ।
…एक गोटेदार लहँगा सिलवाना है.., कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते हुए उसके बच्चों की माँ बोली।
….हूँ……हाँ…फिर सन्नाटा।
…अरे हम तो मजाक कर रहीं थीं। अब तो बच्चों के लिए करेंगे, जो करेंगे।…तुम तो यूँ ही मन छोटा करते हो…।
प्राइवेट फर्म में क्लर्की, बच्चों का जन्म, उनकी परवरिश, स्कूल-कॉलेज के खर्चे, बीमारियाँ, सब संभालते-संभालते उसका जीवन बीत गया। दोनों बेटियाँ अपने-अपने ससुराल की हो चलीं। बेटे ने अपनी शादी में ज़िद कर बहू के लिए जरीवाला लहंगा बनवा लिया था। फिर जैसा अमूमन होता है, बेटा, बहू का हो गया। आगे बेटा-बहू अपनी गृहस्थी की गाड़ी खींचने लगे।
बगैर पेंशन की ज़िंदगी कुछ ही सालों में उसे मौत के दरवाज़े ले आई। डॉक्टर भी घर पर ही सेवा करने की कहकर संकेत दे चुका था।
उस शाम पत्नी सूनी आँखों से छत तक रही थी।
….डागदर-वागदर छोड़ो। देवी मईया तुम्हें ठीक रखेंगी। तुम तो कोई जरूरी इच्छा हो तो बताओ.., सच को समझते हुए धीमे-से बोली।
अपने टूटे पलंग की एक फटी बल्ली में बरसों से वह कुछ नोट खोंसकर जमा करता था। इशारे से निकलवाए।
….बोलो क्या मंगवाएँ? पत्नी ने पूछा।
….तुम गोटेदार लहंगा सिलवा लो..! वह क्षीण आवाज़ में बोला।
© संजय भारद्वाज
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
सुंदर भावपूर्ण रचना सर