श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – युद्ध की विभीषिका और मानव अधिकार- भाग-2 ??

(गुरुवार 24 फरवरी को रूस-यूक्रेन युद्ध को एक वर्ष पूरा हो गया है। इस संदर्भ में युद्ध और मानवाधिकार पर यह विशेष आलेख दो भागों में दिया जा रहा है। आज पढ़िए इस आलेख का अंतिम भाग।)

माना जाता है कि पूर्वी बंगाल के वासियों के असंतोष को दबाने के लिए पाकिस्तानी सैनिकों ने आम नागरिकों पर भी बर्बर अत्याचार किए।  एक वेब पेज के अनुसार लगभग 30 लाख नागरिकों का जनसंहार हुआ था। चार लाख से अधिक महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ। पिछले दिनों बांग्लादेश के विदेश मंत्री ने 1971 के युद्ध में किये गए मानवाधिकारों के जघन्य उल्लंघन के लिए पाकिस्तान को माफी मांगने के लिए भी कहा है।

मानवाधिकारों के उल्लंघन में यौन हिंसा विद्रूप औज़ार के रूप में प्रयोग की जाती है। ‘रेप इज़ अ साइकोलॉजिकल वॉरफेयर।’  यह वाक्य ही मनुष्य के मानसिक पतन का क्रूर उदाहरण है। इस आधार पर हर जघन्य अपराध को तर्क का जामा पहनाया जा सकता है। जघन्यता को तर्क ओढ़ाने की इस सोच को छत्रपति शिवाजी महाराज की युद्धनीति में स्त्रियों के सम्मान का अध्ययन करना चाहिए। उनके एक सेनानायक ने शत्रुसेना के परास्त सूबेदार की अनन्य सुंदर पुत्रवधू गौहर बानू  को भी विजित संपदा के साथ महाराज के सामने प्रस्तुत किया। छत्रपति ने न केवल सेनानायक से नाराज़गी जताई अपितु गौहर बानू को ससम्मान लौटाते हुए कहा, “काश मेरी माँ भी आपकी तरह सुन्दर होती तो मैं भी इतना ही सुन्दर होता!”

मानवाधिकारों के सम्मान की इस परंपरा का भारतीय सेना ने भी सदैव निर्वहन किया है। शत्रु द्वारा अनेक अवसरों पर किये गये युद्ध अपराध का समुचित उत्तर भारत की सेना ने युद्ध के प्रोटोकॉल का पालन करते हुए ही दिया है।

उपसंहार-

जैसाकि आरम्भ में कहा गया है, युद्ध, मानव निर्मित सबसे बड़ी विभीषिका है।  इस विभीषिका को आरम्भ जीवित लोग करते हैं पर इसका अंत केवल मृतक ही देख पाते हैं। विडंबना यह है कि युद्ध शनै:-शनै: जीवित व्यक्तियों की संवेदना को भी मृतप्राय कर देता है। किसी युद्ध में एक मनुष्य, दूसरे मनुष्य के अधिकारों को रौंद रहा हो और सुदूर बैठा तीसरा मनुष्य मनोरंजन के कार्यक्रमों के ब्रेक में युद्ध की विभीषिका को भी किसी रंजक कार्यक्रम की तरह देख रहा हो, इससे अधिक भीषण परिणाम और क्या हो सकता है?

युद्ध की विभीषिका को मनुष्य के स्तर पर अनुभव करने का प्रयास करती इस लेख के लेखक की ‘युद्ध के विरुद्ध’  शीर्षक से एक कविता है-

कल्पना कीजिए,

आपकी निवासी इमारत

के सामने वाले मैदान में,

आसमान से एकाएक

टूटा और फिर फूटा हो

बम का कोई गोला,

भीषण आवाज़ से

फटने की हद तक

दहल गये हों

कान के परदे,

मैदान में खड़ा

बरगद का

विशाल पेड़

अकस्मात

लुप्त हो गया हो

डालियों पर बसे

घरौंदों के साथ,

नथुनों में हवा की जगह

घुस रही हो बारूदी गंध,

काली पड़ चुकी

मटियाली धरती

भय से समा रही हो

अपनी ही कोख में,

एकाध काले ठूँठ

दिख रहे हों अब भी

किसी योद्धा की

ख़ाक हो चुकी लाश की तरह,

अफरा-तफरी का माहौल हो,

घर, संपत्ति, ज़मीन के

सारे झगड़े भूलकर

बेतहाशा भाग रहा हो आदमी

अपने परिवार के साथ

किसी सुरक्षित

शरणस्थली की तलाश में,

आदमी की

फैल चुकी आँखों में

उतर आई हो

अपनी जान और

अपने घर की औरतों की

देह बचाने की चिंता,

बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष

सबके नाम की

एक-एक गोली लिये

अट्टाहस करता विनाश

सामने खड़ा हो,

भविष्य मर चुका हो,

वर्तमान बचाने का

संघर्ष चल रहा हो,

ऐसे समय में

चैनलों पर युद्ध के

विद्रूप दृश्य

देखना बंद कीजिए,

खुद को झिंझोड़िए,

संघर्ष के रक्तहीन

विकल्पों पर

अनुसंधान कीजिए,

स्वयं को पात्र बनाकर

युद्ध की विभीषिका को

समझने-समझाने  का यह

मनोवैज्ञानिक अभ्यास है,

मनुष्यता को बचाये

रखने का यह प्रयास है..!

युद्ध की विभीषिका की वेदना कुरेदेगी तो मानवाधिकारों की रक्षा की संवेदना भी बची रहेगी।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603 ईमेलसंजयउवाच@डाटामेल.भारत; [email protected]

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संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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