डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ लघुकथा – दो-दो नाकें ☆
एक आदमी एक साथ आधा दर्जन बकरियाँ खरीद लाया. घास पत्ती खाकर बकरियां अपना परिवार बढ़ाने लगी. मोहल्ले के बच्चे बकरियों के छौने खिलाने लगे. पड़ोसी के घर घी – दूध की नदी बहने लगी. सुबह-सुबह महंगे दामों पर बकरी का शुद्ध दूध खरीदने वालों की कतारें लगने लगीं.
मोहल्ले वालों में फिर शीघ्र ही बकरी मालिक से मतभेद बढ़ने लगा. उसकी संपन्नता मोहल्ले वालों से देखी नहीं जा रही थी.
वे सब बकरी मालिक से बोले- भाई जी, बकरियों ने हमारी नींदे खराब कर दी है. उनके मल मूत्र की गंध ने हमारा सुख चैन छीन लिया है. आप शीघ्र ही इसका कोई उपाय कीजिए.
बकरी वाला पूरी निडरता से बोला- बकरियां तो गांधी बाबा के पास भी थीं. उनकी बकरियों से तो किसी को भी शिकायतें नहीं रहीं. मेरी बकरियों की दुर्गंध आपको कैसे आने लगी. आपके पास दो दो नाकें है क्या?
बकरी मालिक और पड़ोसियों के बीच एकाएक गांधीजी आ खड़े हुए तो सबकी बोलती बंद हो गयी.
आज भी गांधी बाबा इसी तरह हरिजनों -गिरीजनों के बीच उनकी लाठी बनकर खड़े हो जाएं तो क्या कीजिएगा?
© डॉ कुँवर प्रेमिल
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