डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ लघुकथा – लाठी ☆
“यह किसकी लाठी है?”
“मेरे दादाजी की है जी.”
“और यह लाठी ?”
“दादाजी के दादाजी की है जी. ”
“और उस कोने में रखी वह लाठी?”
“दादा जी के दादाजी के दादाजी की है जी.”
“अजीब देश है तुम्हारा जी, जहां देखो जिसके हाथ में देखो, लाठी मिलेगी. बिना लाठी यहां के लोग चल नहीं सकते है क्या? ”
“ठीक कहा है जी आपने, इन सभी लाठियों के ऊपर है गांधी बाबा की लाठी.”
“वही पुरानी सी पतली सी लाठी!”
“हां वही पुरानी पतली सी लाठी, जिसने अंग्रेजों की कमर तोड़ दी थी…… अरे एक युग हांक दिया था उस लाठी ने जी. ”
“वह तो मैंने अखबारों में पढ़ा था. लाठियों की पीढ़ियां देखने मिल गई. कभी कुछ लिखने लायक हुआ तो लाठियों पर पी.एच.डी. जरूर करूंगा. काश! गांधी बाबा हमारे देश में पैदा हुए होते, मेरे ऊपर एक कृपा करना, देश लौटते समय एक लाठी मुझे भी भेंट कर देना.”
एक विदेशी पर्यटक इस देश का मेहमान बना था. जाते समय वह एक लाठी लेकर अपने देश चला गया.
© डॉ कुँवर प्रेमिल
एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मोबाइल 9301822782
अच्छी रचना