डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ धारावाहिक लघुकथाएं – औरत #2 – [1] अजेय [2] औरत ☆
[1]
अजेय
‘हर औरत दुर्गा का अवतार है, जिस दिन उसे यह पता चल जाएगा उस दिन औरत अजेय होगी।’
‘और हाँ, उस दिन न तो उसे कोई बहला फुसला सकेगा और न कोई छेड़छाड़ ही कर सकेगा।’
‘दुनिया के मंच पर औरत का परचम लहराने में अब कोई ज्यादा वक्त नहीं है। औरत अब अपना रास्ता खोजने में जुट गयी है।’
वे तीन मित्र थे जो अपनी अपनी तरह से औरत की व्याख्या कर रहे थे।
[2]
औरत
पुरातनकाल से आदमी के साथ गुफा में रहकर भी औरत अलग आंकी गई। वह प्रकृति के सानिध्य में रहकर चिड़ियों के संग बतियाती थी, मोरनी के संग नाची, मृगछौनों के साथ उछली कूदी, तालियां बजाकर नाची, वर्षा में खूब नहाई।
तभी न औरत प्रकृतिमयी हो गयी। प्रकृति का हर रूप रंग उसे उपहार में मिला।वह जहां भी रही सराही गई।
औरत प्रकृति का दूसरा रूप मान ली गई।
© डॉ कुँवर प्रेमिल
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≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈