श्रीमती उज्ज्वला केळकर

☆ व्यंग्य- कथा – सन्मानचिन्ह ☆ श्रीमती उज्ज्वला केळकर☆ 

इतवार की छुट्टी थी। यूँ  ही घूमने के लिये  बाहर निकल पड़ा । रास्ते में शरद मिला। बहूत दिन के बाद भेट हुई थी। शरद मेरा जिगरी दोस्त है। स्कूल, कॉलेज में हम दोनों की पढ़ाई  एक साथ हुई थी। आज-कल घर-गृहस्थी की व्यस्तता और रोजी-रोटी के चक्कर में बार बार मिलना नही होता था।

शरद ने कहा,  ‘बहुत दिन के बाद मिल रहा है यार… चलो। घर चलेंगे। चाय की चुस्कियाँ लेते लेते बातें करेंगे।‘ मुझे कुछ खास काम नहीं था, सो उस के साथ चल पड़ा।

शरद हमेशा कुछ न कुछ लिखता रहता है। आज-कल, एक अच्छे लेखक के रूप में  उसका अच्छा नाम था। नवाजा जा रहा था।

शरद के ड्रॉईंग रूम में जैसे ही कदम रखा, सामने की दीवार पर लगी हुई शो केस पर नज़र टिकी। उस में आठ-दस सन्मानचिन्ह सजा कर रखे थे। मैं ने नज़दीक जाकर देखा, ‘अक्षर साहित्य संस्था’, ‘अमर साहित्य संस्था’,  ‘चिरंजीव साहित्य संस्था’ ऐसे ही विभिन्न संस्था द्वारा दिए हुए सन्मानचिन्ह थे। मैंने शरद से गुस्से से कहा, ‘तुम्हारे इतने सन्मान समारोह हुए, एक बार भी मुझे नहीं बुलाया। मैं आता न तालियाँ बजाने के लिए। सामने बैठकर खूब तालियाँ पीटता।‘

उस नें कहा, ‘समारोह हुआ ही नहीं।‘

‘फिर? उन्होँ नें आपको ये सन्मानचिन्ह बाय पोस्ट भेजे? या फिर कुरियरद्वारा या बाय हॅन्ड?’ हैरान हो कर मैंने पूछा।

‘नहीं… वैसा नहीं है…’

‘फिर?…’

‘संस्था की इच्छानुसार मैं नें ये स्वयं ही बना लिये ?’

बात कोई मेरे पल्ले नहीं पड़ी। ‘ वो कैसे ?’ मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी।

शरद ने वहां रखे हुए टेबुल के खाने से एक फाईल निकाली। उसमें से एक कागज निकाल कर  मेरे हाथ में थमा दिया और एक सन्मानचिन्ह की ओर निर्देशित करते हुए कहा, ‘अक्षर साहित्य संस्थ्या’ का यह सन्मानचिन्ह और यह उन का पत्र।‘

मैंनें पत्र पढ़ना शुरू किया। उस में लिखा था, ‘आपकी साहित्य सेवा के लिए हम आप को सन्मानित करते हुए, आप को, संस्था के वर्धापन दिन के अवसर पर पुरस्कार देना चाहते है। पुरस्कार में आप को शाल, श्रीफल, सन्मानचिन्ह और नगद  ५००० रुपये की राशि दी जाएगी। कृपया अपनी स्वीकृती के बारे में तुरंत लिखे।’

‘फिर?’ मैं नें बेसब्री से पूछा।

‘मैं नें अपना स्वीकृति पत्र तुरंत भेजा।‘

‘फिर?’ मेरी उत्सुकता बढती जा रही थी।

‘रात को संस्था के अध्यक्ष महोदय जी का फोन आया, ‘आप बीस हजार का चेक भेज कर संस्था के संरक्षक सदस्य बन जाए, तभी हम आप को पुरस्कृत कर सकते है।‘

‘सोचा, इतने सारे पैसे कहां से लाये? किन्तु संस्था की इच्छा है मुझे सन्मानित करने की, तो क्यौं न उन की इच्छा का आदर किया जाय? और मैंने उन के नाम का यह सन्मानचिन्ह बना लिया।‘

वह कहता जा रहा था, ‘ ये देख और निवेदन पत्र… विभिन्न साहित्य संस्थाओं द्वारा मिले हुए।

फर्क इतना ही है की हर संस्था नें अलग अलग कीमत की राशि मंगवाई है और वह अलग अलग पद देना चाहती है, जैसे संस्था का आजीवन  सदस्यत्व, कही संस्था का अध्यक्षपद, कही विश्वस्त…. जब इस तरह का निवेदन पत्र आता है, तब मैं उस संस्था के नाम से सन्मानचिन्ह बनवा लेता हूँ। उन का निवेदन पत्र इन सन्मानचिन्हों का आधार है और यह काम उन की अपेक्षा से बहुत ही कम खर्चे में होता है।‘

और हम ठहाके मार मार कर हँसने लगे।

©  उज्ज्वला केळकर

संपर्क – १७६/२ ‘गायत्री प्लॉट नं १२ , वसंत दादा साखर कामगार भवन के पास, सांगली ४१६४१६ महाराष्ट्र मो. 9403310170

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Prabha Sonawane

बहुत बढिया ॥ मजा आया पढकर ।