श्री घनश्याम अग्रवाल
(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी रक्षाबंधन पर विशेष रचना हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” )
☆ रक्षाबंधन विशेष – हमारा राष्ट्रीय संबोधन : “भाईयों और बहनों” ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल ☆
हमारा राष्ट्रीय पशु, पक्षी, ध्वज, नदी, आदि के अलावा हमारा राष्ट्रीय संबोधन क्या हो? इस सबंध में जब विचार-विमर्श किया गया तो…,
फेसबुक व व्हाट्सप पर मित्रों ने राष्ट्रीय संबोधन हेतु “राम-राम”, “वालेकुम् सलाम” नाम सुझाये। पर ये सब सुझानेवाले हिन्दू- मुसलमान थे। काश्, कुछ हिन्दू-मुसलमान एक दूसरे के नाम भी सुझाते? तो इन संबोधनों से मुल्क में भाईचारे की ठंडी हवा बहने लगती। ये दोनों शब्द जितने पवित्र है, लोग उतने पवित्र नहीं है। फिर राम का नाम इन दिनों भक्ति से दूर और वोट बैंक के करीब होता जा रहा है। (डर है कहीं चुनाव आयोग चुनाव के दिनों में. “राम नाम सत्य है” पर भी…..) अतः ये संबोधन व्यवहारिक नहीं है।
उसके बाद जो नाम आये वे हैं, “जयहिंद और वंदेमातरम”। पर इन्हें इसलिए रिजेक्ट कर दिये क्योंकि एक तो इसमें सब एकमत नहीं होंगे।
(आजादी के बाद हमें इतनी स्वतंत्रता तो मिली कि हम कहीं भी किसी भी बात पर आपत्ति उठा सके।) दूसरे इन नारों से सभा की शुरुआत का नहीं, सभा की समाप्ति का एहसास होता है।
इसके बाद नाम आया, “इन्कलाब जिंदाबाद” पर ये जुलूस, घेराव, हड़ताल व आन्दोलन के ज्यादा करीब है। इसमें एक जोश व उत्तेजना होने से सीनियर सिटीजन को सांस की तकलीफ के कारण कहते वक्त कुछ कष्ट – सा होता है। फिलहाल इसे भी छोड़ा गया।
आखिर, राष्ट्रीय संबोधन के लिए “भाइयों और बहनों पर सहमति बनी। भाई- बहन इतना सहज और पवित्र रिश्ता है कि आपको हर रिश्ते पर लतीफे मिलेंगे (माता-पिता, भाई-भाई, सास-बहू, ससुर-दामाद, जीजा-साली। सभी पर लतीफे मिलेंगे। पति-पत्नी तो लतीफों की खान है।) मगर भाई- बहन पर नहीं। एक युवती जब पहली बार किसी अपरिचित से बात करती है तो उसका पहला संबोधन होता है ” भाईसाब, जरा….”। इसी प्रकार युवक कहेगा-” बहनजी जरा… । इसी चक्कर में पहली नजर में प्यार होने पर एक युवक ने यूँ इजहार किया-” बहनजी, मुझे पहली नजर में आपसे प्यार हो गया।” और वह भी कह उठती है-” धन्यवाद, भाई साब। कल मिलते हैं, इसी बगीचे में ।”
इतना सहज और पाक रिश्ता है ये।
जब विवेकानंद पहली बार शिकागो गये तो उनके भाइयों और बहनों कहते ही सारे लोग खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे।हर शिकागोयी को लगा रहा था, कि उसका भाई बोल रहा है, और हर शिकागोयीन को लगा जैसे उसके मायके से कोई आया है। विवेकानंद व्दारा कहे ये दो शब्द भारत की पहचान बन गये।
उसके बाद जब बिनाका गीतमाला में अमीन सयानी “बहनों और भाइयों” कहते, सारा देश झूमने लगता। गुनगुनाने लगता। उनके कहने में एक सरलता, एक पाकीजगी, एक ऐसा मीठापन होता कि सुनते ही होठों पर एक गीत आ जाता। ये बात तब की है जब किसी गीत की लोकप्रियता गीतकार, संगीतकार, गायक के अलावा अमीन सयानी के “बहनों और भाइयों” कहने पर भी निर्भर होती थी।
आजादी के बाद हमारे नेताओं ने इस पवित्र संबोधन की ऐसी गत् कर दी है कि भाइयों और बहनों कहकर वोट तो मांग लेते हैं, पर सत्ता मिलते ही सिर्फ अपने भाई-बहन को छोड़ बाकी की-ऐसी तैसी करने में लग जाते हैं। इन दिनों भाइयों की पिटाई और बहनों की रूसवाई कुछ ज्यादा ही अखबारों की हेड लाइन और चैनलों की ब्रेकिंग न्यूज बनती जा रही हैं। ये समाचार पढ़कर-सुनकर इतनी शर्मिंदगी होती है कि अब नेताओं के मुंह से भाइयों और बहनों सुनना अपशब्द सा लगने लगता है।
प्रमुख नेतागण भी इस संबोधन का सबसे ज्यादा प्रयोग करते हैं। जब भी कोई खास बात कहनी है तो पहले कहेंगे” भाइयों और बहनों ” और एक साधारण बात भी खास हो जाती है। जब कोई खास बात नहीं सूझती है तब भी कहेंगे “भाइयों और बहनों” और बस, साधारण बात भी खास हो जाती है।
शुरू-शुरू में इस उद्बोधन में विवेकानंद सी गरिमा और अमीन सयानी सी मीठास थी। धीरे-धीरे इस शब्द की टीआरपी गिरने लगी।
हर 15 अगस्त के पूर्व लालकिले की प्राचीरें तिरंगे से बतियाती है कि-” भइया, चौहत्तर साल हो गये, क्या इस देश को कोई ऐसा भी मिलेगा जो यह महसूस करे कि भाई – बहन के रिश्ते सिर्फ कहने के लिए नहीं, निभाने के लिए होते हैं। हुमायूं और कर्मावती की गाथा फिर एक बार पढ़ लें।
रिश्ते निभाने के लिए पार्टी व पद की ही नहीं, जान तक की कुर्बानी देनी होती है। जो आज की राजनीति में मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। पर यदि भाइयों और बहनों कहने में विवेकानंद जैसी गरिमा और अमीन सयानी जैसी मिठास भी न ला सको तो वे “भाइयों और बहनों” कहने के बदले कोई और संबोधन ढूंढ लें।
यह बात पक्ष-विपक्ष यानी हर पार्टी के लिए लागू है। क्योंकि कमोबेश सब एक-से ही हैं ।
आज भाई-बहन के पवित्र रिश्ते पर देश के सभी भाईयों को नमस्कार और देश की सभी बहनों को प्रणाम।
© श्री घनश्याम अग्रवाल
(हास्य-व्यंग्य कवि)
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈