हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को  हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ी सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की प्रथम कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #1 – व्यंग्य की ज़रूरतें ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

मित्रों, अपनी बात आरम्भ करने के पूर्व हरिशंकर परसाई के एक कथन का उल्लेख करना चाहूँगा – ‘‘अपनी कैफ़ियत दूँ, हँसना, हँसाना, विनोद करना, अच्छी बातें होते हुए मैंने केवल मनोरंजन के लिये कभी नहीं लिखा, मेरी रचनाएँ पढ़कर हँसी आना स्वाभाविक है – यह मेरा यथेष्ठ नहीं, और चित्रों की तरह व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गम्भीर चित्र मानता हूँ।’’

आज ‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ विषय पर चर्चा हो रही है। मेरे मन में दो आशय निकले हैं – पहला व्यंग्य के लिये क्या-क्या ज़रूरी है तथा दूसरा, व्यंग्य की समाज को कितनी ज़रूरत है। अतः इन दो बिन्दुओं को लेकर मिली-जुली चर्चा कर रहा हूँ।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ पर चर्चा करने के पूर्व यह जानना ज़रूरी है कि व्यंग्य की प्रकृति और प्रवृत्ति क्या है? तभी व्यंग्य की ज़रूरतों का आभास होगा। व्यंग्य कैसे अपना प्रभाव डालता है? वह प्रभाव समाज के लिये ज़रूरी कैसे हो जाता है? व्यंग्य अपने आपको कैसे रचता है? व्यंग्य का स्वभाव कैसा है…? यह सब भले पार्श्व में है, पर जानना ज़रूरी है।

आज व्यंग्य प्रचुर मात्रा में लिखा जा रहा है। अख़बार, पत्रिका, सोसल मीडिया में इसकी उपादेयता बढ़ गयी है। बहुत से अख़बारो और पत्रिकाओं से तो कहानी, निबंध तिरोहित हो गये हैं, पर व्यंग्य अंगद की भाँति पैर जमाए खड़ा है। कई अख़बारों ने व्यंग्य के पैर हिलाए, पर बाद में यथा स्थान उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया। नये-नये लेखक अपनी-अपनी कलम घिस रहे हैं। नये विषय तलाशे जा रहे हैं, यह व्यंग्य के लिये शुभ संकेत है। इससे व्यंग्य की संभावनाओं को विस्तार मिला है। एक-दो वर्ष पूर्व तक इस पर गंभीर चर्चा नहीं होती रही, पर आज “व्यंग्य यात्रा” प्रेम जी और ललित जी के श्रम से संभव हो रही है। व्यंग्यकार अपना बेहतर दे रहा है। पाठक उसे कैसे स्वीकार कर रहा है, यह दृष्टि पटल पर स्पष्ट नहीं है। कारण इसका चेकिंग पोस्ट अर्थात् आलोचना व्यंग्य के पास नहीं है, परन्तु अब वह भी होने लगी है। बाज़ार, उपभोक्तावाद और वैश्वीकरण के प्रभाव को भी व्यंग्यकारों ने नोटिस में लिया है। प्रत्यक्ष में बाज़ार और वैश्वीकरण के द्वारा विकास दिख रहा है, पर प्रभाव की दिशा भी दिख रही है। इस विकास की प्रतिच्छाया में मानवीय छाया विलुप्त होती जा रही है। मानवीय संवेदनाएँ भौथरी होती जा रही हैं। मानवीयता मन से धीरे-धीर तिरोहित हो रही है और मानव एक वस्तु के रूप में बदलता जा रहा है।

यह गंभीर स्थिति है और इसी स्थिति को साहित्य की अन्य विधाओं के साथ-साथ व्यंग्य ने गंभीरता से पकड़ा है। कारण यह व्यंग्य की प्रवृत्ति है कि वह समाज में घट रही घटनाओं को गंभीरता से लेता है। कोई विसंगति, विडम्बना, अत्याचार, अन्याय आदि घटनाओं पर अपनी पैनी नज़र रखता और उन्हें पकड़ता है तथा उस पर अपने ढंग से प्रतिक्रिया करता है। यही व्यंग्य की प्रकृति है। व्यंग्य की प्रकृति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, जिस पर गंभीरता से विचार करना चाहिये, तभी हम व्यंग्य को भलीभाँति जान सकते हैं। यह सरल नहीं है। हमारे समक्ष हज़ारों दृश्य आते हैं और उनमें से कुछ हमारे मन को प्रभावित करते हैं तो कुछ विवश करते हैं कि हम प्रतिक्रिया त्वरित दें तो कुछ लोगों के जीवन की रोजाना की चर्या है। पर हम उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं। पर वह हमारे जीवन में इतने गहरे तक रच-बस जाती है कि वह हमारे समाज या जीवन का अंग बन जाती है, पर है वह विकृति। जैसे भ्रष्टाचार, उस पर हम हज़ारों प्रतिक्रियाएँ देते हैं। उसका विरोध भी करते हैं, पर सुविधानुसार जब हमें नगर निगम, विद्युत विभाग, पुलिस से काम पड़ता है तब अपना काम निकालने के लिये श्रम और समय से बचने के लिये माध्यम ढूंढ़ कर पैसा दे कर अपना काम करवा लेते हैं। पर यह क्रिया भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने वाली है। हम समय और श्रम बचाने के लिये थोड़ी देर के लिये उसका अंग बन जाते हैं। हम भ्रष्टाचार के विकास में अपरोक्ष रूप से सहयोग करते हैं। जब उससे अलग होते हैं तो भ्रष्टाचार के विरोध में डण्डे लेकर खड़े हो जाते हैं। जबकि यहाँ पर अपने आत्मबल के साथ हमें हर परिस्थितियों में मुठभेड़ के लिये तैयार होना चाहिये। पर हम अपना स्वार्थ नहीं छोड़ पाते हैं। इसी प्रकार दहेज एक सामाजिक विकृति है। ‘दहेज’ उसका तो हम अपने-अपने ढंग से विरोध करते हैं। पर वक़्त जब आता है तो हम उसके अंग बन जाते हैं, क्योंकि हमारा उसमें स्वार्थ निहित होता है। दोनों पक्षों का क्योंकि उसमें हमारा हित और भविष्य दिखता है। इसलिये उसका अंग बनने में हम कोताही नहीं करते। यह ‘बनना’ व्यंग्य बन कर बाहर आता है। यही मानवीय प्रकृति और सामाजिक विकृति है। हम चीज़ों का विरोध करते हैं और संग खड़े होकर विसंगति को बढ़ावा देने में सहयोग भी देते हैं। यह प्रवृत्तियाँ ही ही विचारणीय हैं।

व्यंग्य और परसाई पर कमलेश्वर की एक टिप्पणी है, जिसमें एक जगह कमलेश्वर कहते हैं, ‘परसाई ने एक नवजागरण की शुरुआत की।’ हालाँकि हिन्दी में शायद मुश्किल से मंजूर किया जाता है कि नवजागरण की हमारे पास कोई परम्परा है। मुझे लगता है, नवजागरण की जो भारतीय परम्परा है, अलग वैचारिक परम्परा है, जो अंधवादिता, धर्मान्धता, आध्यात्मिकता से अलग रचनाकारों की पूरी परम्परा दिखाई देती है, जिसमें नवजागरण के रचनाकार शामिल हैं।

आज़ादी के बाद के महास्वप्न को हमारे पूर्वजों ने खण्डित होते देखा है। उस दौर को देखना उससे बाहर निकल आना और निरन्तर रचनारत रहना मामूली काम नहीं है, पर यह काम परसाई जी ने किया। एक बैशाखी है साहित्य की, जिसकी ज़रूरत सब को है और वो बैशाखी आलोचक की होती है। केवल परसाई ऐसा लेखक है पूरे हिन्दी समाज में और अन्य भाषाओं में भी, जिसे आलोचक की ज़रूरत नहीं पड़ती। परसाई ने कहा कि ‘‘मैं लेखक छोटा हूँ और संकट बड़ा हूँ। संकट पहचान कर भी परसाई ने संकट पैदा किये हैं। एक संकट उन्होंने वैचारिक जागरूकता फैलाकर स्वयं के लिये पैदा किया। अपने समय की तमाम व्यंग्यात्मक स्थितियों, विद्रूपताओं और विडम्बनाओं से वे आहत होते रहे। तब उनकी चिंता बढ़ जाती है।

उपरोक्त टिप्पणी को ध्यान में रखकर हम व्यंग्य पर आगे की बात करते हैं। व्यंग्य की संभावना को तलाशते हुए उस पर विचार करते समय यह भी ध्यान में रखना होगा कि वह अपना आकार कैसे लेता है। यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि जब हम व्यंग्य लिखते हैं तब हम संकेत करते हैं कि व्यंग्य किस पर लिखा जा रहा है। पाठक जब संकेतों की सूक्ष्मता को पकड़ लेता है तब उसे पढ़ने में अलग अनुभूति होती है। अन्यथा वह तटस्थ हो कर सोचने लगेगा। इसी तरह रचना का परिवेश व्यंग्य के लिये आवश्यक तत्त्व है। किसी बात को कहने के लिये इतिहास का सहारा लिया जाये या बात को सीधे-सीधे रचना के अनुरूप कहा जाय। वैसे आधुनिक व्यंग्य में परिवेश भी रचना के अनुरूप होता है। उसे किसी आवरण की आवश्यकता नहीं होती। इस अवधारणा से व्यंग्य की मारक क्षमता प्रभावशाली हो जाती है, जो व्यंग्य के उद्देश्य की प्रथम सीढ़ी होती है। किसी रचना में कथ्य या विषय के मूल को उजागर करने में, उसे प्रभावशाली बनाने में भाषा की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। वही रचना को एक निश्चित स्वरूप प्रदान करती है। भाषा व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण अंग है, जिस पर लेखक को विशेष ध्यान देना चाहिये। यही वे तत्त्व हैं जो व्यंग्य को उच्चतम स्तर तक पहुँचा सकते हैं। अन्यथा अच्छी विषय वस्तु होने के बावजूद रचना का कचरा होने में देर नहीं लगती।

अगर हम परसाई, शरद जोशी या वर्तमान में ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल आदि की रचनाओं का अध्ययन करें तो पाते हैं कि इनकी भाषा सहज, सरल और आसानी से ग्राह्य होते हुए प्रभावी भी है। उसमें किसी तरह की लाग-लपेट और अनावश्यक जटिलता, क्लिष्टता का अभाव है। पाण्डित्यपूर्ण शब्दों की कमी हो, लेखक इस बात का ध्यान रखते हैं, उन्हें मालूम है कि उनका पाठक आम वर्ग से आता है उसे संस्कृतनिष्ठ शब्दों को आत्मसात करने में कठिनाई होती है। वह ऐसी भाषा की संरचना करता है जो सबके लिये सहज, सुलभ और ग्राह्य हो इससे व्यंग्य की गुणवत्ता में अत्याधिक प्रभाव बढ़ जाता है और ऐसी रचना के सौन्दर्य में भी वृद्धि होती है। रचना के विषय के साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक की चिन्ता किसके पक्ष में है? अगर लेखक वंचितों या शोषितों की चिन्ता छोड़ शोषकों की चिन्ता करेगा तब यह तय है कि आम पाठक भ्रमित हो उससे दूर हो जायेगा और वह लेखक की नैतिकता पर सवाल उठा सकता है। यह लेखक का बहुत बड़ा संकट है। क्योंकि विडम्बनाएँ, विषमताएँ तो सभी वर्गों में होती हैं। यह एक मौलिक और महत्त्वपूर्ण संकट है और यह सीधे तौर पर लेखक की अस्मिता से जुड़ा होता है। अतः यह ज़रूरी है कि व्यंग्यकार अपना मत स्पष्ट रखे और उसमें किसी प्रकार का भ्रम मूलक तत्त्व न हो। इसके साथ-साथ यह भी ज़रूरी है कि लेखक किस बात की स्थापना कर रहा है? लेख में उसकी स्थापना ही लेख के स्तर को बनाती है। यदि वह लेख में लिजलिजापन दिखाता है तो पाठक रचना और लेखक से विरक्त हो जायेगा यदि हम किसी बात की स्थापना करते हैं तो उसका आधार तत्त्व मजबूत और स्पष्ट होना चाहिये, इससे रचना की विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यह लेखक, रचना और समाज के लिये अच्छा संकेत है।

एक अच्छे व्यंग्य के लिये समकालीन संदर्भ अत्यंत महत्त्व रखता है, क्योंकि सम्पूर्ण व्यंग्य का आधार बिन्दु समकालीन संदर्भ ही होता है। यदि व्यंग्य आज की विद्रूपता, विडम्बना, विषमता, घटनाएँ, चरित्र, प्रकृति, प्रवृत्ति पात्र को विषय बनाता है तो पाठक उससे आसानी से जुड़ जाता है और वह व्यंग्य के सफ़र में हमसफ़र बन जाता है। उसे किसी भी प्रकार का अतिरिक्त श्रम नहीं करना पड़ता और वह व्यंग्य से सामंजस्य स्थापित कर लेता है। उसकी सामंजस्यता ही व्यंग्य को समझने में उपयोगी होती है  जो व्यंग्य के प्रभाव का आशातीत विस्तार कर देती है। पाठक व्यंग्य के विषय के इतिहास से अनभिज्ञ है तो रचना में शुष्कता का तत्त्व बढ़ जायेगा और यह भी हो सकता है कि उस रचना से पाठक दूर हो जाये। इसी कारण पूर्व में कहा जाता रहा है कि व्यंग्य शाश्वत नहीं है। उसकी उम्र कम होती है। लेखक को अधिक दूर तक नहीं ले जा पाता। पर यह भी सही है कि कुछ प्रवृत्तियाँ, विडम्बनाएँ, विषमताएँ, भ्रष्टाचारी चरित्र शाश्वत होते हैं, जो हर समय नये-नये रूपों में मिलते हैं। तब हर समय का पाठक सहज ही उससे सामंजस्य बैठा लेता है और वह रचना शाश्वतता को प्राप्त कर जाती है। तब व्यंग्य के लिये यह ज़रूरी हो जाता है कि वह यह चुनाव करे कि समकालीन संदर्भ के साथ-साथ उपरोक्त तत्त्व उसमें निहित हों। व्यंग्य को बारीक़ी स देखा जाये तो यह आसानी से समझ में आ जाता है कि व्यंग्यकार कितना संवेदनशील है। व्यंग्य की संवेदनशीलता ही व्यंग्य के स्वास्थ्य को ठीक रखती है। संवेदना ही व्यंग्य का बीज तत्त्व है। उससे ही रचना का अंकुरण और विस्तार और प्रभाव समझ में आता है। लेखक व्यंग्य के पात्र के प्रति संवेदनहीन, निष्ठुर, कठोर, तीखे तेवर के साथ खड़ा होता है तो रचना पाठ्य तो होगी, पर प्रभावी नहीं। पर अगर उसमें भारतीय सांस्कृतिक प्रवृत्ति के अनुरूप करुणा के अंश मिला दिये जायें तो व्यंग्य का आकर्षण बढ़ जाता है; क्योंकि भारतीय समाज अनेक विडम्बनाओं, मूल्यों के साथ भी करुणा के पक्ष में स्वभावतः खड़ा दिखता है। यह भारतीय समाज का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।

परसाई, शरद जोशी के यहाँ तो करुणा का संसार विस्तार से फैला पड़ा है। इसी आधार पर रचना स्मृति में देर और दूर तक बनी रहती है। वर्तमान में एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण प्रेम जनमेजय की जनसत्ता में प्रकाशित व्यंग्य रचना, ‘बर्फ़ का पानी’, जिसमें अंत करुणा से होता है – जिसने भी यह रचना पढ़ी होगी उसके ज़ेहन में उस रचना ने स्थायी स्थान ज़रूर बनाया लिया होगा। ऐसी रचना गाहे-बगाहे याद आती है तो मन में तरंगे दौड़ जाती हैं। व्यंग्य रचना में शिल्प का अत्यंत महत्त्व होता है। व्यंग्य का शिल्प अलग प्रकार का होता है जिसे कहानी, निबंध या किसी अन्य विधा में रख सकते हैं। व्यंग्य के तेवर अलग होते हैं। इसी बात को लेकर परसाई रचनाओं पर आलोचकों का ध्यान नहीं गया और परसाई जी ने भी इस उपेक्षा का कोई नोटिस नहीं लिया। वे अनवरत रचनारत रहे बिना किसी चिन्ता के। इसके पीछे संभवतः मूल कारण उनका अपना विशिष्ट शिल्प ही था जो आलोचकों के लिये नया संकट लेकर आया था। यह सभी बातें व्यंग्य को पाठक के बीच में विश्वसनीयता पैदा करती हैं। किसी भी चीज़ की शुद्धता बनाये रखने के लिये विश्वसनीयता का विस्तार आवश्यक है। यह रचना और लेखक दोनों के लिये ज़रूरी है। सृजन के समय इस तत्त्व का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है। इसके लिये रचना और रचनाकार का आचरण कैसा है, विचार क्या है महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह सब समाज में ज़रूरी माने जाने वाले मुख्य मुद्दे हैं। इन्हीं के अनुरूप व्यंग्य का विस्तार और विश्वसनीयता को आधार मिलता है।

‘व्यंग्य की ज़रूरतें’ के और भी आयाम हैं, जिन पर चर्चा अभी इस आलेख में संभव नहीं है। हमारे पास जो समय है, उस पर यह चर्चा महत्त्वपूर्ण है, मगर इस बात पर भी विचार करना होगा कि व्यंग्य समाज के लिये कितना ज़रूरी है। मेरा ख्याल है कि जिस समाज में हम रह रहे हैं, उसमें पनप रही नयी-नयी प्रवृत्तियों, विडम्बनाओं, बढ़ती विषमताओं, बदलती सोच और मूल्यों का गिरता ग्राफ़, बेशर्मी का हद तक विस्तार, सामाजिक भय, बाज़ारवाद, उपभोक्तावाद से संचालित आर्थिक तंत्र से लोगों में बढ़ती दूरियाँ, शिक्षा का औघड़पन, स्वार्थ में बदलती मानवीयता, विस्तार पाती संवेदनशून्यता, दरकते पारिवारिक रिश्ते, सामाजिक परिवेश और आचरण को चेलेंज करता आधुनिक युवा वर्ग, तकनीकी विकास से आयी विद्रूपताओं का समझ कर उनसे सचेत करने वाली व्यंग्य ही वह विधा जो इन नकारात्मक प्रवृत्तियों से आगाह कर त्वरित और सार्थक प्रतिक्रिया भी व्यक्त करती है। और कहना ही होगा कि ऐसी प्रतिक्रियाएँ असरदार भी होंगी। इसके मूल में व्यंग्य की संरचना और उसका तीखा तेवर जो सत्ता और समाज को सोचने पर मजबूर कर देता है। मन को विचलित कर देता है।

 

© श्री रमेश सैनी 

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