हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #3 – व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी  के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में  ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन  देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।  

आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #3 – व्यंग्य से मुठभेड़ की रचनात्मकता ☆ श्री रमेश सैनी ☆ 

[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं।  हमारा प्रबुद्ध  पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]

अमूमन जब आदमी लेखन के क्षेत्र में घुसता है तो एक प्रकार से घुसपैठिया हो जाता है। वह अपने व्यक्तिगत जीवन से सामाजिक जीवन की चिंताओं में सेंध मारता है। उस जगह का आकर्षण रहता है। नाम और नामा का खिंचाव भी रहता है। वह सोचता है कि उसे वैचारिक कंदराओं से गुजरना होगा। वहाँ वैचारिक चिंताओं का आयातित खतरा होगा। उसे अपने अस्तित्व के मोह का त्याग करना पड़ेगा। उसे उस भीड़ से मुठभेड़ करना होगा जो उससे बेहतर जीवन, बेहतर विचार और बेहतर संसार की अपेक्षा करता है। उस भीड़ में एक से एक मट्ठर पड़े हैं जिनका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपना दैहिक, आर्थिक लाभ देखना होता है। इन मट्ठरों को समाज की विषमताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, मानवीय मूल्यों व मानवीय संवेदनाओं की चिंताओं से कोई सरोकार नहीं रहता है। उसे उनसे भी जूझना होगा। इन चिंताओं का चयन ही उसे लेखक बनने को प्रेरित करता है। यही चिंताएँ ही लेखक की मानसिक तैयारी होती है। यही तैयारी हजारों वर्षों से परम्पराओं के आइसलैण्ड, विचारों के विशाल शिलाखण्ड, विश्वासों की अंधेरी कंदराएँ, धार्मिक उन्मादों की धधकती ज्वालाएँ, सत्ता की ठूँठ हो गयी संवेदनाएँ, बाजार की बर्बरता से बंजर हो गयी आदमियत से मुठभेड़ करने की ऊर्जा देती है। उसके लेखन से टकराने से चिंगारियाँ निकलने लगती हैं। पर जो इससे बचने का रास्ता देखते हैं वे लेखक दिखते हैं, होते नहीं हैं। लेखक स्लम्स गलियों की गंध से लेकर मॉल्स के परफ्यूम में फर्क करने लगता है, उसे वंचित, षोशित, पीड़ित की पीड़ा की कसक समझ आने लगती है। यही कसक उसके माथे पर चिंता की रेखा खींच जाती है। वह इनस बेचैन हो उठता है, उसकी रात की नींद गायब हो जाती है। बेचैनी में वह एक जकड़न महसूस करता है। वह उस जकड़न से मुक्त होना चाहता है, यही जकड़न विचार और कलम की मुठभेड़ है जो कागज पर आकार लेती है। तब एक साहित्यकार अगर तीखा हुआ तो व्यंग्यकार के रूप में जन्म लेता है। व्यंग्यकार ही सामाजिक संवेदनाओं, जीवन की चिंताओं, विषमताओं, विसंगतियों, विडम्बनाओं, नैतिक मूल्यों में बढ़ती अराजकता, ठकुर सुहाती, दुमुहाँपन को उजागर करता है, वही उसका रचनात्मक बिन्दु होता है।

यहाँ पर अपने मित्र पत्रकार, कथाकार श्री हरीश पाठक जी की बात करना चाहूँगा। उनके परिवार के उनके समकक्ष और छोटे बड़े डॉक्टर, इंजीनियर, सी. ए. आदि पद पर वह काम कर रहे हैं पर उनके पिता उनसे भी इनमें से चुनाव कर उनके भविष्य को सुरक्षित करना चाहते थे। पर वे अपनी दुनिया सबसे अलग पत्रकारिता में देख रहे थे। इस कारण उनका अपने पिता से वैचारिक संघर्ष होता था। पिता उनसे सदा असंतुष्ट और नाराज रहते थे। इसी नाराजी के चलते वे पिता से विद्रोह कर पत्रकार बन गए और अपने विद्रोही तेवरों को उन्होंने कथा में ढाल दिया। यही चीज वे व्यंग्य की शैली और भाषा  में ढाल देते तो व्यंग्यकार बन जाते।

समय का लेखन ही करीब-करीब व्यंग्य लेखन है। समय साहित्य की अन्य विघाओं में भी होता है, पर व्यंग्य में इसका प्रभाव अधिक होता है। यह मन मस्तिष्क पर तीव्रता से प्रभाव डालता है। यह विचारणीय पक्ष है कि आज सामने जो गलत घट रहा है, विद्रूपताएँ मुखर हो रही हैं, उसे आमजन मजबूरीवश, अपनी क्षमताओं को देखते हुए यथास्थिति स्वीकार कर लेता है। कोई विपरीत प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करता है। यह अजीब समय है (पहले ऐसा नहीं होता था। पहले लोग विरोध करते थे)। इसका सटीक उदाहरण है हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचना ‘अकाल उत्सव’। परसाई जी ने उस समय की अकाल विभीषिका का, शासकीय अराजकता, सत्ता की संवेदनहीनता, विरोध के प्रपंच को ‘अकाल उत्सव’ में जोरदार ढंग से उकेरा है। ‘अकाल उत्सव’ द्वारा उस समय का चित्र हमारे सामने आ जाता है (आज के पाठकों को उस समय को समझने में मदद मिलेगी)। यह व्यंग्य से मुठभेड़ का रचनात्मक पहलू है। परसाई जी की रचनाओं पर नामवर सिंह जी ने कहा था कि स्वतंत्रता के बाद के इतिहास को जानना है तो परसाई को पढ़ें।

लगभग इसी समय के आसपास की शरद जोशी की महत्वपूर्ण रचना है – ‘जीप पर सवार इल्लियाँ’। यह व्यंग्य से मुठभेड़ को उकसाती रचना है। इस रचना ने ब्यूरोकेट्स की अराजकता को अपने व्यंग्य से तार-तार कर दिया था तथा सत्ता की संवेदनहीनता और मानवीय जीवन के ताने-बाने के बिखरे रूप को समाज के सामने ला दिया था। आज भी कुछ नहीं बदला है, वरन् कुछ और ह्रास ही हुआ है। मानवीय रिश्ते दरक रहे हैं – उनको बखूबी पढ़ा है वरिष्ठ व्यंग्यकार ‘व्यंग्य यात्रा’ के संपादक डॉ. प्रेम जनमेजय ने। उनकी महत्त्वपूर्ण व्यंग्य रचना ‘बर्फ का पानी’ ने विषमता भरे समाज की मानवीयता के दरके रूप को समाज के समकक्ष नंगा कर दिया है। कारुणिक अंत वाली संवेदनहीनता की यह सशक्त रचना है। इसने ढोंग वाले समाज को अंदर तक तार-तार कर दिया है। यह जीवन मूल्यों के विचलन को भी अभिव्यक्त करती रचना है। यह सोचने को मजबूर करती है कि अभी भी समय है, संभल जाओ!

हमारा दैनिक जीवन उथल-पुथल से भरा पड़ा है। सुबह उठो, दूध की लाइन, मोबाइल उठाओ, सिगनल/नेट का गायब हो जाना, फोन करो बात का कट जाना। वाट्स एप में पोस्ट की भरमार, उसमें डिलीट का श्रम साधक समय व्यय। फेसबुक में लाइक, कमेंट्स का हिसाब, बस-मैट्रो में भीड़ की मारामारी, शहर में लंगड़े बुखार की महामारी, अस्पतालों के चक्कर पै चक्कर, बच्चों की बसों से माता-पिताओं का घटता विश्वास, नेताओं के वायदों की उठती मीनार आदि सैकड़ों बातें हैं। ऐसी विद्रूपताएँ हैं जिनसे हम रोज रूबरू होते हैं। इन चीजों ने व्यंग्य से मुठभेड़ करने का आमंत्रण दिया है, जिसे स्वीकार किया है डॉ. ललित लालित्य ने। डॉ. ललित लालित्य ने विद्रूपताओं को रचनात्मकता से जोड़ दिया है। विलायती राम छोटी-छोटी मुठभेड़ को आगाह कर रहे हैं। व्यंग्य की ये रचनाएँ व्यंग्य का नया संसार रच रही हैं। पाठक को सावधान करती हैं।

यह भी देखा जा रहा है कि समय की विवशता ने व्यंग्यकार को समझौतावादी बना दिया है। वह  छोटी-छोटी चीजों पर तो अपनी प्रतिक्रिया देता है, पर बड़ी से आँख मूँद लेता है। पर व्यंग्य में यह भेदभाव नहीं चलता है। अधिकांश व्यंग्यकार, राजनीति और धर्म में व्याप्त विसंगतियों पर बात करने से बचता है। पर ऐसा भी नहीं है कि सब बच रहे हैं। अधिकांश व्यंग्यकार राजनीति और समाज में व्याप्त विद्रूपताओं पर त्वरित दखल दे रहे हैं। वर्तमान में राजनीति और समाज में फैली अपराधिक वृत्तियों पर व्यंग्यकार द्वारा त्वरित तीखी टिप्पणी आ रही हैं। यहाँ पर सबका उल्लेख करना कठिन है पर उदाहरण स्वरूप  वरिष्ठ व्यंग्यकार गिरीश पंकज, फेसबुक, अख़बार, पत्रिकाओं में घटनाओं के दूसरे दिन दिख जाते हैं। स्त्रियों पर हो रहे अनाचार पर इंद्रजीत कौर की अभी तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली। बल्देव त्रिपाठी, दिलीप तेतरवे, बिजी श्रीवास्तव, बृजेश कानूनगो, शशांक, मीना अरोरा, सुदर्शन सोनी, अरुण अर्णव खरे, अनूप शुक्ल डॉ. सोमनाथ यादव, विनोद साव, राजशेखर चौबे, शांतिलाल जैन, राजेन्द्र मौर्य आदि अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में सजग हैं।

व्यंग्य से मुठभेड़ के फलस्वरूप व्यंग्य की रचनात्मकता को अप्रतिम विस्तार मिला है। व्यंग्य का महत्त्वपूर्ण गुण बीमारी में ऐन्टीबायोटिक के समान है। यह तीव्र असरकारक होता है। सभी व्यंग्य यात्री सत्ता, समाज, धर्म के अंतर्विरोधों से मुठभेड़ कर रहे हैं और यह भविष्य में भी जारी रहेगा

© श्री रमेश सैनी 

सम्पर्क  : 245/ए, एफ.सी.आई. लाइन, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर, मध्य प्रदेश – 482 002

मोबा. 8319856044  9825866402

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈