श्री रमेश सैनी
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति पर व्यंग्य लेखन’।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो #6 – व्यंग्य निबंध – प्रवृत्ति पर व्यंग्य लेखन ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
व्यंग्य ,साहित्य की वह महत्वपूर्ण विधा है.जो मानवीय और सामाजिक सरोकारों से सबसे अधिक नजदीक महसूस की जाती है. व्यंग्य ही समाज में व्याप्त विसंगतियांँ, विडंबनाएँ पाखंड, प्रपंच, अवसरवादिता, ठकुरसुहाती अंधविश्वास आदि विकृतियों, कमियों को उजागर करने में सक्षम विधा है। वैसे साहित्य में कहानी, उपन्यास और कविता आदि अन्य विधा भी उक्त विकृतियों को अनावृत करती है, किंतु उसका प्रभाव समुचित ढंग से समाज में नहीं दिखता, जितना कि व्यंग्य विधा के माध्यम से. इसके पीछे व्यंग्य का फॉर्मेट, भाषा,शिल्प और विषय है. जो उसको मुकम्मल रूप से जिम्मेदार ठहराता हैं. व्यंग्य की प्रकृति अपनी बुनाव, बनाव से सीधे-सीधे जनमानस पर प्रभाव डालता हैं. समाज और राजनीति में व्याप्त विसंगतियाँ समाज में घुन की तरह काम करती हैं. यदि समय रहते इसे उजागर ना किया जाए तो वह समाज में नासूर बन जाती हैं. कभी-कभी यह भी देखा गया है. कि अनेक व्यक्तियों में पाई जाने वाली प्रवृत्तियाँ भी समाज की नैतिकता चाल-ढाल रहन सहन जीवन शैली आदि को प्रभावित करती है. यह प्रवृत्तियाँ सामाजिक, मानवीय पतन की ओर सीधे-सीधे संकेत करती हैं. यहाँ एक बात अत्यंत महत्वपूर्ण है कि व्यक्तिगत कमजोरियाँ भी हमारे दैनिक जीवन को प्रभावित करती हैं. इन प्रवृत्तियों का मानवीय और सामाजिक जीवन में परोक्ष रूप से तो नहीं पर अपरोक्ष रुप से प्रभाव गहन होता है. इसे कमतर नहीं आँका जा सकता है. पूर्व के व्यंग्यकारों ने तो प्रवृत्तियों पर धड़ल्ले से लिखा है. उसी परम्परा का अनुसरण करते हुए समकालीन व्यंग्यकार भी प्रवृत्तियों पर प्रमुखता से लिख रहे हैं. यह प्रवृत्ति मूलक लेखन ने व्यंग्य को नई दिशा देने का काम किया है. प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य ने पाठक को चकित तो किया है और चमत्कृत भी. इस प्रकार की लेखन ने बरसात के प्रारंभिक दिनों की झड़ी से भींगी मिट्टी की सौगंध का अनुभव दिया है. यह प्रवृत्ति निंदा की हो सकती है. ठकुर सुहाती की हो सकती है. अन्याय, प्रपंच के पक्ष में चुप रहने की भी हो सकती है. इस प्रकार की प्रवृत्ति अन्याय प्रपंच निंदा आदि करने वालों से अधिक खतरनाक होती है. इनके पक्ष में चुप रहना .इन को प्रोत्साहित करने के समान होता है. इससे उन शक्तियों को बल मिलता है और वे बल पाकर अधिक दमदार होकर समाज को ऋणात्मक रुप से प्रभावित करती है. अगर प्रारंभ में ही इन विकृति जन्य प्रवृत्तियों को कुचल दिया जाए तो समाज और मनुष्य को बचाने में अधिक कारगर हुआ जा सकता हैं. इस कारण प्रवृति पर बहुतायत से व्यंग्य लिखा जा रहा है पाठक इसे पसंद भी कर रहे हैं. इसका लाभ यह दिख रहा है कि पाठक विकृतियों से अपने को बचाकर भी रखना चाह रहे है.
प्रवृत्ति में व्यंग्य लेखन कब से प्रारंभ हुआ. यह ठीक से नहीं कहा जा सकता है. पर हरिशंकर परसाई ने प्रचुर मात्रा में लिखा और इस प्रकार के व्यंग्य को सामाजिक संदर्भ में जोड़कर देखने का नया आयाम दिया. इसमें पाठक की भी रूचि बढ़ी. पत्र-पत्रिकाओं ने इसे हाथों हाथ लिया है .पाठक और पत्र-पत्रिकाओं में इस नई दृष्टि को आधारशिला के समान गंभीरता से लिया. जो प्रवृत्ति पर लेखन के लिए सहायक सिद्ध हुई. इस कारण अधिकांश व्यंग्य लेखकों ने अन्य विषयों की अपेक्षा इसे सहज सरल और प्रभावशाली माना. इसे प्रवृत्ति मूलक लेखन का प्रभाव ही कहा जा सकता है. हरिशंकर परसाई जी की चर्चित रचना “पवित्रता का दौरा “से अच्छे से समझ सकते हैं. वे लिखते हैं..
‘इधर ही मोहल्ले में सिनेमा बनने वाला था तो शरीफों ने बड़ा हल्ला मचाया. शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ शरीफ स्त्रियां रहती हैं. और यहाँ सिनेमा बन रहा है. गोया सिनेमा गुंडों के मोहल्ले में बनना चाहिए ताकि इनके घरों की शरीफ औरतें सिनेमा देखने गुंडों के बीच में जाएँ. मुहल्ले में एक आदमी कहता है. उससे मिलने की एक स्त्री आती है. एक सज्जन कहने लगे – ‘यह शरीफों का मुहल्ला है. यहाँ यह सब नहीं होना चाहिए. देखिए फलां के पास एक स्त्री आती है.’ मैंने कहा – ‘साहब शरीफों का मुहल्ला है. तभी तो वह स्त्री पुरुष मित्र से मिलने की बेखटके आती है. वह क्या गुंडों के मुहल्ले में उससे मिलने जाती है.’
इस शरीफ दिखने दिखाने का ढोंग करने वाले व्यक्ति सब जगह मिल जाएंगे. जो सदा दूसरों से बेहतर दिखने का नाटक करते हैं. यहाँ पर प्रवृत्ति अनावश्यक रूप से द्वेष पैदा करती है. इस प्रवृत्ति वाले हर जगह अड़ंगा दिखाते मिल जाएंगे. शरद जोशी की एक अद्भुत रचना है ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं’, शासकीय कार्यालयों में खुशामदी प्रवृत्ति पर तीखा व्यंग्य है. वैयक्तिक प्रवृत्ति पर प्रभावशाली व्यंग्य है. यह सीधे-सीधे मानवीय प्रवृति पर चोट करता है इस प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य से समाज प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं होता है, पर खुशामदी प्रवृत्ति शासकीय व्यक्ति या अफसरों के निर्णय लेने की क्षमता को प्रभावित करने में सक्षम होती है. जिसका प्रभाव बाद में समाज में परिलक्षित होता देख सकते है. आरंभ में प्रवृत्तियां प्रत्यक्ष रूप में समाज को प्रभावित करने वाली नहीं दिखती है. पर शनैः शनैः इसका प्रभाव ऋणात्मक रूप से सामने आ जाता है. शरद जोशी की इस रचना ‘वर्जीनिया वुल्फ से सब डरते हैं.’ में वे लिखते हैं
वे सचिवालय के तबादलों की ताजी खबरें सुनाते दुकान में घुस गए
सोमवार को फाइल बगल में दाबे छोटा अफसर बड़े अफसर के कक्ष में घुसा और ‘गुड मॉर्निंग’ करने के बाद बोला- कल की पिक्चर कैसी रही! सर.
बड़ा अफसर एक मिनट गंभीर रहा. सोचता रहा क्या कहें फिर उसने कंधे उचकाए और बोल’ इट वाज ए नाइस मूवी’! ऑफ कोर्स !
दोपहर को छोटे अफसर ने अगासे को बताया कि बड़े साहब को पिक्चर पसंद आई. वह कह रहे थे कि’ इट वाज ए नाइस मूवी’
दोपहर बाद एकाएक सभी लोग ‘हु इज अफ्रेड आफ वर्जिनिया वूल्फ’ की तारीफ करने लगे .
क्यों भाई! कल की पिक्चर कैसी लगी. ‘इट वाज ए नाइस मूवी’ जवाब मिला
यह अफसरों में खुशामदी का बढ़िया उदाहरण है. यह ठकुरसुहाती की प्रवृत्ति अफसरों के निर्णय को प्रभावित करती है. जिससे अपरोक्ष रूप से समाज प्रभावित होता है. आज यह प्रवृत्ति राजनीति क्षेत्र में बहुत आसानी से देखी जाती है. राजीव गांधी के समय में यह कहा जाता था कि वे काकस से घिरे रहते थे.
प्रवृत्तियों पर लिखे गए व्यंग्य वैयक्तिक होते हैं पर उनका शिल्प और भाषा की संरचना ऐसा होती है कि वे सर्व सामान्य से दिखने लगती हैं. आजकल प्रवृति मूलक व्यंग्य रचनाओं में एक विसंगति उभर कर आ गई है. रचना वैयक्तिक व्यंग्य की होती है. आजकल प्रवृत्ति लिखे जा रहे व्यंग्य में व्यक्तिगत विसंगतियां अधिक है.जिन्हें लेखक प्रवृत्ति मूलक व्यंग्य कह रहा है. जबकि वह किसी व्यक्ति को केंद्र में लिखी गई हैं. कभी-कभी अनायास यह संयोग जुड़ जाता है कि व्यक्तिगत प्रवृत्तियां भी अनेक लोगों में संयोगवश मिल जाती है.जिन्हें भी प्रवृति वाला व्यंग्य कह जाते हैं. जबकि वे व्यंग्य व्यक्तिगत खुन्नस वाले होते है. जो पढ़ने में रोचक लग सकते हैं. पर पाठक पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है जबकि प्रवृत्तिजनक व्यंग्य में सावधानी रखना जरूरी होता है. इस तरह का व्यंग्य का विषय/प्रवृत्ति सार्वजनिक और सामाजिक जीवन में दिखने वाला होना चाहिए. अनेक व्यक्तियों की कुछ आदतें ऐसी होती हैं जो अन्यत्र नहीं दिखती हैं. तब इस पर लिखा व्यंग्य वैयक्तिक हो जाएगा. पर परसाई जी की अनेक रचनाएं व्यक्तिगत परिपेक्ष में लिखी रचनाएं हैं. पर उनका प्रस्तुतिकरण आम प्रवृत्ति का रूप ले लिया है. उनकी एक रचना ‘वैष्णव की फिसलन’ वैयक्तिक प्रवृत्ति की रचना है.एक व्यक्ति की प्रवृत्ति पर लिखी गई है आज जब उसे हम पढ़ते हैं तो लगता है कि यह अनेक लोगों में अलग-अलग ढंग से देखी जा सकती है. यहाँ पर वैयक्तिक प्रवृत्ति समान्य व्यक्ति में परिणित हो गई है. यह व्यंग्यकार और व्यंग्य का कौशल है जो उसे सर्वजन हिताय बना दे. प्रवृत्ति पर लिखा लेखन मूल रूप से समाज और मानवीय जीवन में पनप रही प्रवृत्ति/विकृति को उजागर कर मनुष्य और मनुष्यता को बेहतर करने का पहला कदम है.
© श्री रमेश सैनी
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈