श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

(युवा साहित्यकार श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल जी लखनऊमें पले बढ़े और अब पुणे में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। आपको बचपन से ही हिंदी और अंग्रेजी कविताएं लिखने का शौक है। आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य पहला पोपट!)

 ☆ व्यंग्य ☆ पहला पोपट! ☆ श्री केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल ☆

बात उन दिनों की है जब हम नये-नये पुणे शहर में आये थे, उम्र भी उतनी थी की अधिक जानकारी नहीं थी और न ज़रुरत।

नौकरी महाराष्ट्र में लगी थी तो  मराठी भाषा से दो-चार होना भी स्वाभाविक था। एक बार यूँ ही बातों बातों में एक मित्र ने कहा कि “बहुत पोपट हो गया”, और उत्सुकता वश हमने पूछा कि यह क्या होता है?  समय के आभाव के कारण मित्र ने कहा की बाद में बताएंगे। और फिर सभी इस बात को भूल गए।

एक बार येरवड़ा से पुणे स्टेशन जाने के लिए बस में चढ़े ! हमेशा की तरह बहुत भीड़ थी, पर कुछ ऊपरवाले का आशीर्वाद और कुछ शरीर का लचीलापन कि हमें सीट मिल गई।

जो पुणे नहीं आते जाते उनको बता दूँ कि, बस की सीट मिलना,  लोकसभा की सीट मिलने जितना मुश्किल नहीं होता, न ही शादीशुदा पुरुष को अपने ही घर में टीवी का रिमोट मिलने जितना मुश्किल होता है। पर अपने आप में एक छोटी मोटी उपलब्धि के रूप में तो गिना ही जा सकता है। पर कामयाबी पा लेना एक बात होती है, और उसपे टिके रहना दूसरी। ठीक अगला स्टॉप आते ही एक वृद्धा बस में चढ़ी और नैतिकता के कारण हमने अपनी सीट उनको दे दी।

आगे का वाकया सुनाने से पहले एक और जानकारी देना चाहते हैं। जब बात मराठी की आती है तो उन दिनों हमे मराठी का सिर्फ एक वाक्य ही आता था :

“मला मराठी येत नाही”।

महिला ने सीट मिलने की ख़ुशी में हमे मराठी में धन्यवाद दिया, हमने भी मुस्कुरा के स्वीकार कर लिया। अभी एक मिनट भी नहीं गुज़रा था कि उन्होंने फिर से हमारी ओर देख कर कुछ मराठी में कहा, न समझ में आने पर भी हमने हाँ की मुद्रा में सर हिला दिया। ऐसे ही दो स्टॉप और गुज़र गए परन्तु वह मेरी ओर देख कुछ न कुछ मराठी में कहती रही।

बस आगे बढ़ी और कुछ जगह होने पर मैंने एक दूसरी सीट लपक ली, परन्तु लपकने में अधिक फुर्ती न दिखा पाने के कारण विन्डो सीट जाती रही। उस पर एक युवती बैठ गई। मुझे लगता है अलग से बताने की कोई आवश्यकता नहीं है कि विंडो सीट, आम सीट मिलने से बड़ी उपलब्धि है। परंतु इससे पहले कि हम अपनी छोटी सी हार का शोक मना पाते, वृद्धा ने फिर से हमारी ओर देखा और मराठी में एक और गद्यांश सा पढ़ दिया।  इस बार हमसे रहा न गया, और मित्रो द्वारा सिखाया मंत्र हमने पढ़ दिया :-

“मला मराठी येत नाही।”

वे बड़ी ज़ोर से हसीं और उन्होंने हिंदी में कहा, “आप के बगल में मेरी बेटी बैठी है मैं उससे बात कर रही हूँ।”

मुझे लगा कि शायद पहले भी उनकी बेटी मेरे बगल में ही खड़ी थी। मजे की बात है कि  उसने अपनी माँ की किसी बात का कोई ज़वाब नहीं दिया। पर बस में किसी को सफाई देने से कोई फायदा नहीं होने वाला था,  हमारा मज़ाक तो उड़ चुका था।

राहत की बात यह थी कि अगला स्टॉप पुणे स्टेशन आ चूका था, और अजीब स्थिति से बचने के लिए हमने भी भागने में कोई देरी न दिखाई।

बाद में मराठी के जानकार मित्र ने बताया कि इसी को “पोपट होना” कहते हैं।

© केशव राजेंद्र प्रसाद शुक्ल

पुणे मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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