श्री शांतिलाल जैन

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  इस दयार में तन्हा न वादियाँ बचीं हैं न फ़िज़ाएँ…” ।)

☆ शेष कुशल # 45 ☆

☆ व्यंग्य – “इस दयार में तन्हा न वादियाँ बचीं हैं न फ़िज़ाएँ…” – शांतिलाल जैन 

प्रिय अतिथि,

तुम मत आना हमारे शहर में.

तुम अकेले तो आते नहीं,  पर्यटक के भेष में लाख की संख्या के औसत में रोज़ चले आते हो. तुम्हारे बूट के नीचे हमारे शहर की जमीन ही नहीं काँपती, शहरवासी भी काँपने लगते हैं. चलते तुम हो, हाँफने हम लगते हैं. तुम्हारे टेम्पो ट्रेवेलरों के काले धुएँ से सैर सपाटे के शहर के फेफड़ों में कजली जमने लगी है. कहते हैं दमा दम के साथ जाता है. जाता होगा मगर, आता तो पर्यटकों के साथ है. जिन्दगी किसी तरह इन्हेलर, नेबुलाईजर, डेरिफाइलीन के सहारे कट रही है. तुम्हारे वाहनों के शोर ने बुजुर्गों में बैचेनी और बच्चों में चिढ़चिढ़ापन बढ़ा दिया है. उनकी तीखी चुभती हेडलाइट्स ने जन-प्रतिनिधियों को अकल का अंधा बना दिया है. शहर में आती भीड़ के रेलों को वे विकास समझने भी लगे हैं, समझाने भी लगे हैं. तुम्हारे वाहनों की पींsss पाँsss पोंsss पोंsss ने जन-प्रतिनिधियों को बहरा कर दिया है. पर्यटन-विकास के नक्कारखाने में जन-कराह की तूती गुम हो गई है. जरूरी नहीं कि प्रलय भूकंप, तूफ़ान, बाढ़, भूस्खलन की शक्ल में ही आए, वो सैलानियों के सैलाब की सूरत में भी आ सकता है. हमारी मिन्नतें हैं अतिथि, तुम मत आना.

तुम्हारी गाड़ियों के काफिलों ने निस्तब्ध, नीरव, मंद गति वाले शहर को फ़ास्ट फॉरवर्ड मोड में ला दिया है. कभी शांत, सुन्दर, सौम्य रहा अध्येताओं, लेखकों, कलाकारों, ऋषियों, तपस्वियों का यह शहर अब रात में भी सो नहीं पाता, भारतीय रेल को सवारी रात में ही उतराने में मज़ा जो आता है. जहाँ तुम्हारी इनोवाएँ खड़ीं हैं वहाँ कुछ समय पहले हमारे आशियाने हुआ करते थे. उजाड़ दिए गए कि तुम्हारे लिए पार्किंग प्लाजा बनाया जा सके. तुम्हारी लैंड-रोवरों को निर्बाध गति देने के हेतु से चौड़ी की गई सड़क ने दोनों ओर के हमारे आब-ओ-दाने लील लिए हैं. नीड़ नष्ट कर दिए जाने का क्रंदन वातानुकूलित एसयूवी के अन्दर सुनाई नहीं देता. जेसीबी का दैत्य देखकर ही सिहरन पैदा होती है. और नया घर ? अब न अफोर्डेबल किराए पर मिल पा रहा है न खरीद पाने की हैसियत ही बची है. आसमान नीचे है, छत की कीमत उसके ऊपर. बेरिकेड्स की दीवारें जगह-जगह उग आई हैं. चीन की दीवार से बस एक इंच नीची इन दीवारों के उस ओर ही तो थे बाऊजी, मुँह में गंगाजल डलवाए बगैर चले गए. पास के मोहल्ले तक में न जाने पाने का दर्द किसी अभागे रहवासियों से पूछो. कभी निकला करते थे भगवन् अपनी आँखों से नगरवासियों का हाल जानने. तुम्हारी भीड़ के चलते अब वे मंदिर की चौखट से बाहर नहीं आ पा रहे, और हम हैं कि अन्दर नहीं जा पाते. बेबसी इधर भी है, बेबसी उधर भी. बेबसी अब और मत बढ़ाना. अतिथि, तुम मत आना.

सावधान, आगे पर्यटक सेल्फी ले रहे हैं. टू-व्हीलर में ब्रेक लगाईए और रुके रहिए. फोटो सेशन कब फिनिश होगा, कब हम दफ्तर पहुँच पाएंगे. खडूस बॉस का खौफ तुम क्या जानों अतिथि,  आग उगलती निगाहों का सोचकर ही द्रव किडनी से तेज़ी से छूट जाने की मांग करने लगता है. यूरिनरी ब्लैडर फटना चाहता है और इस भीड़ में सड़क किनारे हलके हो पाना संभव नहीं. रिक्शे अपन के दाम में मिलते नहीं. लोकल सवारी को ऑटोवाले हेय दृष्टि से देखते हैं. उन्हें सिर्फ तुम्हारी दरकार होती है. चोरी के बेर मीठे लगते हैं कमीशन के बेर उससे अधिक मीठे. होटल में चेक-इन करा करा कर मीठे बेर का चस्का लग गया है. चारों ओर उग आए होटलों, सरायों, धर्मशालाओं, गेस्ट हाउसों के जंगलों में कोर-सिटी में भटक गई है. फिर, हमारे बच्चे कम पढ़े-लिखे हों, बड़े होकर तुम्हारा रिक्शा खींचे ऐसा कोई पाप तो उन्होंने किया नहीं है. तुम बड़ी संख्या में आते हो उनके स्कूलों की छुट्टी हो जाती है. हमारे बच्चों पर तरस खाना अतिथि, तुम मत आना.

हम जानते हैं तुम रुकनेवाले नहीं हो, आओगे और पुण्य कमाकर चले जाओगे. हम तुम्हारा छोड़ा कचरा बीनते रह जाएँगे. पुण्य सलिला तुम्हें पवित्र कर देगी और तुम उसे गंदला,  इस कदर कि सदानीरा स्वयं के नीर का स्वयं आचमन नहीं कर पाए. तुम तो अपना परलोक सुधारकर निकल जाओगे अतिथि, हम अपने इहलोक का क्या करें!! तुम्हारी भीड़ में मोक्षदायिनी का मोक्ष गुम हो गया है. तुम क्या आए पीछे पीछे शहर में जेबकतरे, उचक्के, लुच्चे, उठाईगिरे चले आए हैं. इनसे बचाना अतिथि, तुम मत आना.

तुम्हारे आगमन ने अभिसार के एकांत उजाड़ने का अपराध किया है अतिथि. कुछ अंतरंग पल प्रियतमा के संग सुकून से गुजार सकें ऐसी सारी जगहें लील गए हो तुम. शब्-ए-मालवा का पुरसुकूं अहसास रफ्ता रफ्ता काफूर हो गया है. इस दयार में तन्हा न वादियाँ बचीं हैं न फ़िज़ाएँ. वे शहर खुशनसीब होते हैं जो पर्यटन के नक़्शे पर नहीं होते. ये सवाल बेमानी हो चला है अतिथि कि तुम कब जाओगे? अब तो तुमसे आगे और न आने की मिन्नतें बचीं हैं. हम पर मेहर होगी अतिथि, तुम मत आना.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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