श्री धर्मपाल महेंद्र जैन
संक्षिप्त परिचय
जन्म : 1952, रानापुर, जिला: झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी, हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर. टोरंटो (कनाडा) : 2002 से कैनेडियन नागरिक.
प्रकाशन : “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता।
स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।
नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित।
श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में “अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका अप्रतिम व्यंग्य फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते।
☆ फिर न कहियेगा प्रकाशक नहीं मिलते ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆
लोग घोड़ा देखते हैं तो उस पर बैठने की आशा संजो लेते हैं। यदि कुँआरे घोड़े पर बैठ जाएँ तो मंडप तक पहुँचे बिना उतरते नहीं। वैसे ही जब कोई लेखक किताबों के प्रकाशक को देखता है तो दुल्हे जैसे सपने देखने लगता है। ऐसे मीठे सपने कि प्रकाशक उसकी किताब छापेगा। कहानियों की किताब छपी तो उन कहानियों पर फिल्में बनेंगी और वे ऑस्कर जीतेंगी। कविताओं की किताब छपी तो किशोर कुमार घराने के लोग उसके गीत गाएँगे और उसके एल्बम इतने टॉप पर होंगे कि ग्रैमी अवार्ड वाले उसका घर ढूंढते-ढूंढते आ जाएँगे। रेल्वे प्लेटफॉर्मों और हवाईअड्डों के बुक स्टोर वाले उसकी किताब ‘डिस्प्ले’ पर रखेंगे। साहित्य के आलोचक उसकी किताब को चाहे महत्व नहीं दें पर राज्य अकादमियों के लोग प्रशंसा की गोटियाँ डालने लगेंगे। साहित्य के छोटे-बड़े फेस्टिवल में वह अपनी किताब के अंश सुना सकेगा। पांडुलिपि तैयार है, बस कोई ढंग का प्रकाशक नहीं मिल रहा। लेखक को प्रकाशक तो कई मिल रहे हैं, पर उसे ऐसा प्रकाशक चाहिए जो उसके जूतों में पैर रख कर उसके जैसे सपने देख सके। हर नया प्रकाशक नई उम्मीद का लॉलीपॉप देता है। प्रकाशक पांडुलिपि देखने की बजाय उस लेखक का वजन देखता है, लेखक के कपड़े देखता है। फिर लेखक के कपड़े उतरवाना शुरू करता है, कुछ मालमत्ता दिखा तो छिलाई शुरू करता है। धीरे-धीरे नव-प्रकाशक और लेखक का संबंध खानदानी बनने लगता है। कुछ महीनों बाद वह लेखक समझ पाता है कि उसने जो उम्मीदें बाँधी थीं वे एकदम झाँसा थीं। नया प्रकाशक भी उसे उल्लू बना गया। लेखक व्यंग्यकार है, इसका मतलब यह तो नहीं कि वह उल्लू ही है। व्यंग्य लिख-लिख कर जब अजीर्ण हो जाता है तब बेचारा लेखक ऐसे झाँसा-प्रकाशक को दिन-रात कोसता रहता है तब कहीं उसकी रोटी हजम होती है।
अब लेखक चिरोंजीलालजी को ले लें। वह सूखे मेवे जैसे लेखक हैं, चमकदार बर्नियों में सजाए जाते हैं। महंगे बिकते हैं पर कम मात्रा में उठाए जाते हैं। सड़ा मेवा फ्री में मिले तो भी लोग नहीं चखते। उनकी किताबों का यही हाल है। वे जब पांडुलिपि प्रकाशक को सौंपते हैं तो प्रकाशक उनसे धन रूपी मेवा रखवा लेता है। गूगल के सौजन्य से प्राप्त मुफ्तिया सामग्री से किताब का आकर्षक कवर बनते देर नहीं लगती। चिरोंजीलालजी, प्रकाशक को और मेवा देते हैं। कुछ और पेज छपवाने में लेखक का मेवा खतम हो जाता है। अंततः, लेखक के हाथ में शगुन की पाँच प्रतियाँ आ जाती हैं। उन्हीं से विमोचन हो जाता है, उन्हीं से तीन-चार लोकार्पण, और दस-बीस जगह समीक्षाएँ हो जाती हैं। वे पाँच प्रतियाँ सदा सुहागन की तरह लेखक के कब्जे में रहती हैं। प्रकाशक, किताब के कवर पेज को हर पोर्टल पर चिपका कर रखता है ताकि किसी दिन बिल्ली के भाग्य से अमेजॉन पर कोई ऑर्डर आ जाए और वह ऑन डिमांड प्रिंट निकाल कर किताब की पहली प्रति बेच सके। चिरोंजीलाल जी अपनी लेखकीय प्रति हरदम अपने साथ रखते हैं। हर मंच पर उसकी मार्केटिंग करते हैं, किताब का टाइटल बताते हैं, उसे खोल कर प्रकट करते हैं और श्रोताओं को उनसे मिलने के लिए उकसाते हैं। मजाल, कोई भी सभ्य-असभ्य श्रोता उनके टोने-टोटके से प्रभावित हो जाए और समीप आ कर उनकी किताब के कवर पेज पर उनका नाम पढ़ ले।
आज एक प्रकाशक मुझे ‘भवन’ के अहाते में प्रसन्न मुद्रा में मिल गए। वे भरे पेट लग रहे थे। प्रकाशक दो ही स्थितियों में इतना प्रसन्न हो सकता है। या तो पिछले साल की बकाया राशि का संस्थान ने उसे चेक दे दिया हो या बचे हुए बजट को निपटाने के चक्कर में थोक ऑर्डर दे दिया हो। मैंने प्रसन्नचित्त प्रकाशक से पूछा- आपने आज किसकी किताब कांजी हाउस में चरा दी। वे हाथ जोड़ कर प्रणाम मुद्रा में बोले -आप भी अपनी पांडुलिपि दे दीजिए, हमें यहाँ गठ्ठर सप्लाय करना है। आपकी घास भी चरने डाल देंगे। और खुश खबर ये कि हम एग्रीमेंट करेंगे, बिक्री का हिसाब देंगे और सुप्रबंधन कर इसे अमेजॉन की टॉप टेन लिस्ट में चढ़वा देंगे। मैंने उन्हें हाथ जोड़ते हुए कहा “आपने किसी लेखक से कभी एग्रीमेंट किया हो तो बताएँ। किसी को रॉयल्टी में कुछ दिया हो तो बताएँ। दूध होगा तो दूध दिख जाएगा।” वे हं, हं, हं, करने लगे। झाँकी जमाने आए थे, यहाँ-वहाँ झाँक कर वे विजयी हो गए। सुना है विभाग ने राज्य भर में नई अलमारियों की आपूर्ति के लिए टेंडर निकाला है और फर्नीचर वाले गुप्त जी पुस्तक चयन समिति के खासमखास बनाए गए हैं।
मेरे दूसरे मित्र सुप्रसिद्ध लेखक हैं, कचौड़ीलाल। वह जब प्रकाशित होते हैं तो फूले-फूले, तेल चढ़े होते हैं। प्रकाशक एक झारे में जितनी कचौड़ियाँ समा सकता है, वह उतनी किताबें छाप कर रख देता है। किताबी कचौड़ियों का जब तक कहीं गणित नहीं जमता, वे प्रकाशक के खोमचे में पड़ी-पड़ी महकती रहती हैं। फिर प्रकाशक इन कचौड़ियों पर चटनी डालता है, दही डालता है, और महंगी मिठाई खरीदने वालों को मुफ्त में कचौड़ियाँ टेस्ट करवाता है। दो-चार कचौड़ियाँ बच जाए तो वह कचौड़ियों का नया संस्करण ले आ आता है। पुरानी कचौड़ियाँ उनमें मिक्स कर दी जाती हैं। ऐसे प्रकाशक मुझे अच्छे लगते हैं। पुराना माल नया होता रहे और बाजार में बना रहे तो लेखक के जिंदा बचे रहने की आस बंधी रहती है। इस बहाने लेखक अपने दोस्तों और परिचितों को दस परसेंट डिस्काउंट में अपनी किताब बिकवा तो सकता है। अन्यथा, उसके जीते-जी ही उसकी किताब काल-कलवित हो गई तो वह बेचारा विधुर लेखकों की पंगत में बैठा दिया जाएगा।
खेद, सारे प्रकाशक ऐसे निष्ठुर, हृदयहीन और टटपूँजिया किस्म के नहीं होते। आपको पता होगा, घेवरमलजी के प्रकाशक भोजनालय किस्म के हैं। किताब छापने का पैकेज साफ-साफ बता देते हैं, ताकि किसी लेखक को परोपकार का भ्रम नहीं रहे। उनका पैकेज वस्तुनिष्ठ होता है, तेरा तुझको अर्पण शैली वाला। वे निश्छल बता देते हैं, पैकेज में चार रोटी, दाल-सब्जी, नींबू-कांदा, पापड़ आदि से सजी आधी थाली मिलेगी, किफायती और स्टैंडर्ड। नगर पालिका के नल का देसी पानी मिलेगा। लिमिटेड थाली में सब थोड़ा-थोड़ा मिलेगा, लिमिट में। किताब छपवाने की भूख मिट जाएगी, प्यास बुझ जाएगी पर अमर होने की लालसा बनी रहेगी। वे कहते हैं, अपने लेखन पर गुमान हो और उसका इसी जन्म में लुत्फ उठाना हो तो रॉयल पैकेज ले लो। उस पैकेज में वे किताब छापेंगे, उसकी मार्केटिंग करेंगे, साथ ही किसी पुराने चावल से भूमिका लिखवा लाएँगे, समारोह पूर्वक विमोचन करवाएँगे, प्रशस्तिपूर्ण समीक्षाएँ छपवाएँगे, मेले में नाच-नचनिया के साथ लेखक को नचवाएँगे, लायब्रेरियों के गोडाउनों में भरवाएँगे, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में लगवाएँगे और फिर छोटी-बड़ी सफेद रेशमी शाल में लेखक और किताब दोनों को लिपटवा कर दम लेंगे। वे आपसे कहेंगे, हे लेखक तुम रचना का बीज बो दो, धन की खाद डालते जाओगे तो वे बीज से वृक्ष तान देंगे। वृक्ष का समय-समय पर रख-रखाव होता रहेगा तो उसे वटवृक्ष बनने में देर नहीं लगेगी। समझदार लेखक को इससे बड़ा इशारा कोई प्रकाशक नहीं कर पाएगा।
मेरे कुछ लेखक मित्रों को निहायत शरीफ प्रकाशक भी मिले हैं। उनसे कोई लेखक एक रोटी माँगे तो वे एक रोटी का ही चार्ज लेते हैं। खाली पेट में कोई निवाला भी डाल दे तो वह जनम-जनम का पूज्य बन जाता है। ये शरीफ प्रकाशक ई-बुक की लौ सुलगा कर लेखक (माफ करें, लेखक की मशाल) को जलाए रखते हैं। किंडल जैसे प्रकाशक भी हैं, मुफ्त में छाप देते हैं, मुफ्त में बेच देते हैं। वे कहते हैं यहाँ उपलब्ध लाखों किताबों के ढेर में लेखक तुम्हारी भी एक किताब सही। जिस दिन कयामत आएगी, कब्रों से निकल कर मुर्दे जिंदा हो जाएँगे, तब तुम्हारी किताब जरूर पढ़ी जाएगी। वर्तमान दुनिया के बाजार के लिए कृपया क्षमा करें। इस काल में पाठकों से ज्यादा लेखक हो गए हैं। आप जानते ही हैं, लेखक का काम केवल लिखना है, उन्हें खुद का लिखा पढ़ने की फुरसत नहीं है तो दूसरों का लिखा कब और कैसे पढ़ेंगे?
कुछ परंपरागत प्रकाशक हैं, उनकी अपनी धुन है और अपना राग। उनके पास पहले से ही गोडाउन भरे पड़े हैं। उनके पास जो पुराना है वह दुर्लभ किस्म का है और वे नया छापते हैं उसे भी दुर्लभ बनाने के हिसाब से छापते हैं। इनके द्वारा जो टिफिन भरे जाते हैं उनके खाने वाले बंधे हुए हैं। वे अपना माल उन्हीं को खिलाते हैं और उन्हीं से कमाते हैं। वे उन संस्थानों को माल बेचते हैं जो वांछित भाव देते हैं। इन खरीददारों की हालत यह है कि उधार मिल रहा है तो बासी माल खाने में कैसा परहेज! कहीं से दान या अनुदान मिलेगा तो बकाया सुलट जाएगा। मैंने आपको हिंदी के लेखकों के लिए उपलब्ध प्रकाशकों के कुछ ‘सेम्पल बताए’। बड़े शहरों विशेषकर राजधानियों में चार-पाँच स्टार वाले रेस्टोरेंटनुमा प्रकाशक होते हैं। इनके पास आधार सामग्री तो वही रहती है ठेले वाली, पर कटलरी उम्दा होती है, साज-सज्जा मनमोहक होती है। इनके लोग आगंतुकों को झुक-झुक कर किताबें परोसते हैं, पहले मेनू बताते हैं, खिलाते-पिलाते हैं, फिर बिल थमा देते हैं। ये इतनी शालीनता से जेब खाली करवाते हैं कि ग्राहक को लगता है वे इन किताबों को पढ़कर भारत के गुरूर, थरूर बन सकते हैं।
मैं यह व्यंग्य पोस्ट करने वाला ही था कि राजधानी के प्रतिष्ठित स्व-नाम धन्य लेखक मेरी टोह लेते आ गए और इसे पढ़ कर बोले – ‘किस जमाने में रहते हैं आप। मेरे प्रकाशकों को देखिए, रोज बारी-बारी से शाम को मेरे घर पर अपना कमोड छोड़ जाते हैं और दो-तीन दिन में ले जाते हैं। इतने समय में जितना उत्पादन होता है, सब छप जाता है और पूरे देश की लाइब्रेरियों में खप जाता है। जुगाड़ बैठ जाए तो विदेशी लाइब्रेरियों में भी अपना माल धकेला जा सकता है। मैंने ऐसा काँटा बिठाया हुआ है कि आठ-दस बड़ी भारतीय भाषाओं में मेरी किताब के अनुवाद शाया हो जाते हैं। लेखक को लिखने के अलावा दुनियादारी की कुछ समझ हो तो अपार काम है। लिखने वाला थक जाए पर प्रकाशक कभी न थके। गूगल पर सर्च के देख लो, मैंने कितने प्रकाशकों को धन्य किया है।’ अच्छा हुआ सिर पर मैला ढोने की प्रथा खत्म हो गई और लेखक के घर पर कमोड जड़ा कर साहित्य छापने का काम संस्थागत हो गया। मैं जानता हूँ वे मेरे लेखक मित्र पद से पूजे जाते हैं, पद न हो तो उनका पैंदा ही नहीं रहे। वे संस्थागत चल निकले हैं। यदि लेखक, लेखन के ही भरोसे रहे तो सम्मान महोत्सवों में भी जूते खाए। जो सच था वह आपको बता दिया, फिर न कहियेगा कि कोई प्रकाशक नहीं मिलता! बस जो मिल जाए उसे ढंग का बनाना आपका काम है।
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
रचना पढ़कर आनंद आया। यथार्थ को हास्य की चाशनी में मिलकर कुशलता से परोसा है।
साधुवाद!