श्री जय प्रकाश पाण्डेय
“सवाल एक – जवाब अनेक (9)”
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का विभिन्न लेखकों के द्वारा दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु तो अवश्य ही खोल देंगे। तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।
वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा है, सामूहिक द्वेष और स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………
तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न और उसके अनेक उत्तर। प्रस्तुत है पुणे से श्री हेमन्त बावनकर, जबलपुर से श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव , बीकानेर से डॉ. अजय जोशी एवम मुंबई से श्री संजीव निगम की ओर से –
सवाल : आज के संदर्भ में, क्या लेखक समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?
जनाब पहले तो यह तय करें कि आज के संदर्भ में आप किस लेखक की बात कर रहे हैं? उस लेखक की जो दिन रात दिमाग में विचारों के घोड़े दौड़ाते हुए हृदय, मस्तिष्क और कलम में सामंजस्य बैठाकर सकारात्मक साहित्य की रचना कर रहा है या उस लेखक की बात कर रहे हैं जो सोशल मीडिया में कट-पेस्ट-फॉरवर्ड कर तथाकथित साहित्य की रचना कर रहा है या कि शब्दों में कुछ हेरफेर कर दूसरों की रचना अपने नाम से प्रकाशित कर रहा है। कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो उस समाज के घोड़े की आँख हैं जिनकी आँख के ऊपर कवर लगा होता है, नाक की सीध में चलते हैं, किसी न किसी के अंधभक्त हैं, उनकी लगाम उनके हाथ में भी नहीं होती है, शब्दों के चाबुक चलाते रहते हैं। कुछ लेखक तो सम्मान की दौड़ में किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। और भी किस्म किस्म के लेखक है जिनकी व्याख्या करने से शब्द सीमा के बाहर शब्दों के घोड़े दौड़ने लगेंगे।
मुद्दे की बात इतनी सी है जनाब कि मैं तो सिर्फ पहले किस्म के लेखक की नब्ज़ जानता हूँ। वह समय पड़ने पर समाज के घोड़े की आँख का उपयोग बाज के आँखों की मानिंद करता है और व्यंग्य जैसी विधा से लगाम लगा कर समाज को आईना दिखाने में कोई गुरेज नहीं करता।
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लेखक की भूमिका तो समाज के घोड़े की आँख, लगाम से आगे मस्तिष्क की भी है
लेखक समाज के घोड़े की आंख या लगाम मात्र नही , दरअसल वह भी समाज का ही हिस्सा होता है . लेखन कर्म से वही जुड़ता है जो अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील व जागरूख होता है . वह परिवेश में घट रही घटनाओ का मूक साक्षी भर नही होता जहां वह अच्छाई का समर्थक व प्रशंसक होता है . वहीं कुरीतियो और बुराई पर लेखक अपनी कलम से हर संभव वार करता है . इस सबके साथ ही अनेक बार स्वयं लेखक भी समाज सापेक्ष कमजोरियो से ग्रसित भी होता है , तब वह भी यहां वहां चारे पर मुंह मारने से बाज नही आता . किन्तु उसका चैतन्य लेखन समाज के घोड़े की आंख का तटस्थ युग दृष्टांत होता है . वह अपने लेखन की चाबुक से समाज के घोड़े को सही राह पर चलाये रखने सतत प्रयत्नशील रहता है . वह यथा संभव लगाम खींच कर समाज को सही मार्ग दिखाने का यत्न करता नजर आता है . यदि समाज को केवल एम एफ हुसैन के घोड़े में ही चित्रित करना हो तो लेखक की भूमिका समाज के घोड़े की आंख , लगाम ,या सरपट भागते पैरों से अधिक घोड़े के मस्तिष्क की हैं .
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मुझे लगता है कि लेखक समाज घोड़े की ना तो आंख है और ना ही लगाम। देश की जनसंख्या में युवा वर्ग सर्वाधिक है। यही समाज का बड़ा हिस्सा है। इस वर्ग को लिखे गए किसी तरह के साहित्य से कोई खास लेना देना ही नही है। उनका एक बड़ा वर्ग आपने रोजगार और काम धंधे को ढूंढने और परिवार के भरण पोषण की जुगाड़ में संघर्ष कर रहा है तो दूसरा वर्ग अपनी अलग मस्ती में मस्त है। उसका अपना एक अलग संसार है। उसको खाने पीने और मौज मस्ती करने से ही फुरसत नही है।वह बढ़िया से बढ़िया कपड़े पहनता है,जूते पहनाता है, महंगी और बढ़िया गाड़ियों में घूमता है। अपनी गर्लफ्रैंड के साथ होटलों और रेस्ट्रोरेंट में मजे करता है और पार्टियां करता है। बहुत से युवा नशे की चपेट में भी है उनको दीन दुनिया से कोई लेना देना ही नही है। युवाओं का बड़ा वर्ग फेसबुक, व्हाट्सएप, यूट्यूब, इंस्टाग्राम जैसे सोसल मीडिया की आभासी दुनिया में व्यस्त और मस्त है। उसका अधिकांश समय इसमें ही बीतता है। इस सब के बीच उसके पास लेखक द्वारा लिखे गए को ना तो गंभीरता से पढ़ने का समय है और ना ही अमल करने में उसकी कोई रुचि। पढ़ने की रुचि और प्रवर्ति निरन्तर समाप्त हो रही है इसलिए वह लेखक के लिखे साहित्य की आंख से देखने का ना तो वो सोचता है और ना ही देखता है। यह पीढ़ी किसी बंधन को स्वीकार करने को भी तैयार ही नही है इसलिए लेखक के लिखे को घोड़ की लगाम को स्वीकार करने के लिए वह कतई तैयार ही नही है। युवा वर्ग का एक बहुत छोटा वर्ग पढ़ता लिखता है और गंभीर भी है लेकिन वह अन्य युवाओं को प्रभावित करने की स्थिति में नही है।युवा वर्ग के आलवा जो पीढ़ी है वह अब इस स्थिति में रही ही नही कि वो लेखक के लिखे को आंख के रूप में देख सके और लगाम के रूप में स्वीकार कर सके। दूसरी तरफ आज जो लिखा जा रहा है वह ना तो आंख की तरह दृष्टि देने में सक्षम है और ना ही समाज को इतना प्रभावित कर पाता है कि समाज उसको लगाम की तरह स्वीकार करे।
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मुंबई से श्री संजीव निगम जी का जबाब ___
साहित्यकार समाज को एक सच्ची दृष्टि दे तो वही लगाम की तरह सार्थक होगी
क्या ही मस्त सवाल रखा है सामने, आज के संदर्भ में। ये ठकाठक दौड़ता समाज वाकई घोड़े की रफ्तार से दौड़ रहा है। इस समाज पर साहित्य ही लगाम का काम कर सकता है लेकिन अफसोस की बात यह है कि जीवन और समाज के बाकी क्षेत्रों की तुलना में साहित्य धीरे धीरे पीछे छूटता जा रहा है। हालांकि साहित्य आज भी उससे जो अपेक्षा है वह काम कर रहा है पर वह समाज पर वैसा असर नहीं छोड़ पा रहा है जो एक लगाम से अपेक्षित होता है। लेकिन हम कह सकते हैं कि साहित्य समाज के घोड़े की आंख जरूर है। अच्छे, बुरे को आज भी सही से देखता है और दिखाता है। अब ये समाज के विवेक पर है कि वह उन दृश्यों को देख कर अपने अंदर क्या सुधार करना चाहता है। आज का समाज सलाह पर तो फिर भी ध्यान दे देता है पर कोई बंधन स्वीकार नहीं करता है। साहित्य को भी इसी के अनुरूप चलना होगा, तभी वह कुछ मायनों में सार्थक हो पाएगा। साहित्यकार यदि एक सच्ची दृष्टि दे सके तो वह भी आज नहीं तो कल एक लगाम का काम करेगी।
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