श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उनका ऐसा ही एक पात्र है ‘असहमत’ जिसके इर्द गिर्द उनकी कथाओं का ताना बना है। आप प्रत्येक बुधवार साप्ताहिक स्तम्भ – असहमत आत्मसात कर रहे हैं। ‘असहमत’ से सहमत होने या न होने के लिए आपको प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ ‘असहमत’ पढ़ना पड़ेगा।)
☆ संस्मरण ☆ तुलाराम चौक ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
(भारतीय स्टेट बैंक, तुलाराम चौक, जबलपुर – यादों के झरोखे से, श्री अरुण श्रीवास्तव जी की कलम से।)
सदाबहार शब्द की परिभाषा शायद यहीं पर चरितार्थ होती हैं. समय के साथ दुकानदारों की पीढ़ियां हेंडिंग ओवर और टेकिंग ओवर की बैंकिंग शब्दावली को साकार करती रहती हैं. ऐसा कहा जाता है कि “वक्त से ही कल और आज होता है याने वक्त की हर शै गुलाम और वक्त का हर शै पे राज़ भी होता है’.
किन्तु, ये चौराहा तो किसी ज़माने के नुक्कड़ सीरियल की याद दिलाता हैं जहां संबंधों की गर्मजोशी वक्त को थाम कर कहती है कि ज्यादा से ज्यादा क्या करोगे वक्त जी, बालों का रंग ले लोगे, चेहरे के नूर को झुर्रियों से एक्सचेंज कर लोगे. तो कर लो कौन तुम्हें पकड़ पाया है. पर तुम्हारी पहुंच और ताकत शरीर की सिर्फ ऊपरी तह तक ही है. झुर्रियों के मालिक के ख्वाबों तक, खयालों तक और सबसे बड़ी बात कि दिलों तक तुम्हारी पहुंच नहीं है.
आज भी जब तुलाराम चौक से गुज़रते हैं वो लोग जिन्होनें स्टेट बैंक में अपनी सुबहों को रातों में बदला था और बदले में पाया था , वेतन, ओवरटाईम, बोनस, इंक्रीमेंट, एरियर्स और प्रमोशन तो उनकी नज़रें उस भवन पर थम जाती हैं जहां से कभी हंसने की आवाजें,और हमेशा ही बैंकिंग हॉल की चहल पहल, कभी सामने बाहर निकल कर नारेबाजी की बहुत सारी यादें उन्हें रामभरोसे होटल की चाशनी से तर खोबे की जलेबी जैसा ही तर कर देती है. गुजरे हुये वक्त को फिर जीने की चाहत, कदमों को होटल की तरफ खींच लेती है और वो ये भूल जाते है कि वो डायबिटीज़ से ग्रस्त हैं. उस वक्त वो बीते समय के नौजवान हीरो बनकर खोबे की जलेबियों से मिले आनंद में डूब जाते है. फिर किशोर कुमार का गाना बाहर नहीं दिलों के अंदर बज़ता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”. जलेबी और मेचिंग गर्म और ताज़े नमकीन के स्वाद के बाद अगला पड़ाव स्वादिष्ट कड़क मीठी अदरकी चाय का होता है जो बाकायदा स्वाद ले लेकर पी जाती है पर फिर भी फीकी लगती है क्योंकि इस चाय को कड़कदार और मज़ेदार बनाने वाली मोतियों याने मित्रों की माला बिखर चुकी है. दिल में एक टीस सी उठती है इन पंक्तियों के साथ “मैं अकेला तो न था, थे मेरे साथ कई, वो भी क्या दिन थे मेरे ,मेरी दुनियां थी नई “ की धुन या गीत गुनगुनाते हुये.
पर अलसेट पाये वक्त के होंठों पर कुटिल मुस्कान आ जाती है जो शायद यादों के तिलस्म में खोये शख्स को वक्त की अहमियत बतलाते हुये कहती है कि –
“सब कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं है, कुछ ऐसा भी है जो हमारे हाथ में है जनाब”
© अरुण श्रीवास्तव
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