डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 67 ☆
☆ रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं ☆
यदि सपने सच न हों, तो रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं। पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। मानव स्वतंत्र है, यह सपने देखता है और उन्हें साकार करने में अपनी संपूर्ण ऊर्जा-शक्ति को झोंक देता है। परंतु कई बार वह सफल हो जाता है और कई बार उसे असफलता का मुख देखना पड़ता है। सफल होने पर फूला नहीं सकता और असफल होने पर अकारण अवसाद में घिर जाता है। उसे यह संसार व रिश्ते- नाते मिथ्या भासने लगते हैं और निराशा रूपी गहन अंधकार में फंसा व्यक्ति, लाख चाहने पर भी उनके जंजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। अक्सर धैर्य खो देने की स्थिति में वह थक-हार कर बैठ जाता है और अपने लक्ष्य को भी भूल जाता है। अकर्मण्यता उसे घेर लेती है और निराशा की स्थिति में वह अपने लक्ष्य से किनारा कर लेता है, जो कि ग़लत है।
सफलता प्राप्ति के केवल दो मार्ग नहीं होते; तीसरा विकल्प भी होता है। सो! मानव को उस विकल्प की ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि ऋतु-परिवर्तन के समय वृक्ष अपनी पत्तियां बदलते, हैं जड़ें नहीं। पतझड़ के पश्चात् वसंत का आगमन अवश्यंभावी है। उसी प्रकार दु:ख के पश्चात् सुख, रात के पश्चात् दिन व अमावस के पश्चात् पूनम का आना निश्चित है। जो आया है, अवश्य जाएगा; फिर निराशा क्यों? यह संसार एक मुसाफ़िरखाना है। हर इंसान यहाँ अपना क़िरदार अदा कर चल देता है और यह सिलसिला कभी थमने का नाम नहीं लेता। संघर्ष प्रकृति का आमंत्रण है, जो उसे स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। ईश्वर ऑक्सीजन की तरह होता है, उसे आप देख भी नहीं सकते और उसके बिना रह भी नहीं सकते। इसलिए कहा जाता है कि यदि ज़िंदगी को समझना है, तो पहले मन को समझो, क्योंकि जीवन हमारी सोच का साकार रूप है। जैसी सोच, वैसा ही जीवन। असंभव इस दुनिया में कुछ भी नहीं। हम वह सब कुछ कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और जो हमने आज तक सोचा हैं नहीं, उसे साकार रूप प्रदान करने का सामर्थ्य भी हम में है। सो! मानव सपने देखने को स्वतंत्र है। इसलिए कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने की सीख दी है अर्थात् जो सपना आप संजोते हो, उसे पूरा करने के लिए सभी पहलुओं सोच-विचार करें और स्वयं को उसमें खपा दें, जब तक आप उसे पूरा नहीं कर पाते…तब तक निरंतर लगे रहे। अक्सर गलियों से होकर हम सही रास्ते पर आते हैं और कोई रास्ता इतना लंबा नहीं होता। यदि आपकी संगति अच्छी है, तो आप निष्कंटक मार्ग पर अबाध गति से बढ़ते चले जाते हैं। ‘ क़िरदार की अज़मत को न गिरने दिया हमने/ धोखे तो बहुत खाए, परंतु धोखा न दिया हमने।’ इसलिए सदैव सत्कर्म करें और अहं को अपने निकट न आने दें। ‘घमंड मत कर ऐ! दोस्त/ सुना ही होगा, अंगारे राख ही होते हैं ‘ के माध्यम से मानव को सचेत किया गया है। जो जन्मा है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है…यही जीवन का कटु सत्य है। धधकते अंगार अर्थात् अहंनिष्ठ व्यक्ति का अंत भी वही है। अच्छी किताबें, अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते, उन्हें पढ़ना पड़ता है। इसी प्रकार जीवन के यथार्थ को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि मानव शरीर पांच तत्वों से बना है और अंत में उसे उनमें ही मिल जाना है। एक बूंद से जन्मा शरीर, अंत में एक मुट्ठी राख में परिवर्तित हो जाता है। जो इस रहस्य को जान जाता है, उसे न कोई खौफ़ रहता है, न ही कोई अहंकार/ न ही कोई ठौर ठिकाना/ मिट्टी था मैं, मिट्टी ही हूं और फिर मिट्टी में मिल जाना है। इसलिए मानव को यह सीख दी गई है कि आप इस तरह जिएं कि आपको कल मर जाना है और इस तरह सीखें कि आपको सदा जीवित रहना है। यह जीवन एक पाठशाला है। मानव हर दिन कुछ न कुछ नया सीखता है, क्योंकि ज्ञान अनंत है, अथाह है। जितना इंसान इसे सीखने का प्रयास करता है, डूबता चला जाता है। वास्तव में सीखने के लिए तो कई जन्म भी कम हैं।
जिस प्रकार सुगंध के बिना पुष्प, तृप्ति के बिना प्राप्ति, ध्येय के बिना कर्म एवं प्रसन्नता के बिना जीवन व्यर्थ है, उसी प्रकार ज्ञान के अभाव में मानव जीवन भी पशु-तुल्य है। वह केवल पेट भरने के लिए उपक्रम करता है तथा अपने परिवार से इतर कुछ भी नहीं सोचता। स्वर्ग व नरक की सीमाएं निश्चित नहीं हैं, परंतु हमारे विचार व कार्य-व्यवहार ही स्वर्ग- नरक का निर्माण करते हैं। इसलिए कहा जाता है कि ख़्याल करने वाले सही मार्गदर्शक को ढूंढिए, क्योंकि इस्तेमाल करने वाले तो खुद ही आपको ढूंढ लेंगे। वैसे खुद को पढ़ना संसार में सबसे कठिन कार्य है, परंतु प्रयास अवश्य करना चाहिए। सो! मन को शांत रखने का हुनर सीखिए और दूसरों के दिल में जगह बनाइए। इसलिए ज़रूरत से अधिक सोचने से बेहतर है कि ज़रूरत से अधिक व्यस्त रहें। यही मानसिक तनाव से मुक्ति का मार्ग है। सो! प्रभु की इबादत कीजिए, जहां ज़रूरतों का ज़िक्र न हो अर्थात् जो मिला है, उसके प्रति आभार प्रकट करें।
इसे संदर्भ में कलाम जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है। यदि आप किसी से संबंध बनाए रखना चाहते हैं, तो उसके बारे में जो आप जानते हैं, उस पर विश्वास कीजिए; न कि आपने जो उसके बारे में सुना है। ‘दोस्ती के मायने, कभी ख़ुदा से कम नहीं होते/ अगर ख़ुदा करिश्मा है, तो दोस्त जन्नत से कम नहीं होते।|’ वास्तव में इंसान, इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि उम्मीदें ही धोखा देती हैं, जो वह दूसरों से करता है। इसलिए ऊंचाई पर हैं जो, वे प्रतिशोध की अपेक्षा परिवर्तन की सोच रखते हैं।
सो! खुशी प्राप्त करने का पहला उपाय है कि अतीत की बातों के बारे में न सोचा जाए, क्योंकि वे हमें आज की खुशियों से महरूम कर देती हैं। इसके साथ ही मानव को खुद को बदलने की सीख दी गई है। यदि आप संसार में दूसरों से बदलने की अपेक्षा करोगे, तो आप विजयी नहीं हो सकोगे, पराजित हो जाओगे तथा जीवन में कुछ भी नहीं कर पाओगे। आजकल लोग समझते कम, समझाते अधिक हैं। तभी तो मामले सुलझते कम, उलझते अधिक हैं। यहां मैं सरदार पटेल की उक्ति का ज़िक्र करना चाहूंगी कि |कठिन समय में कायर बहाना ढूंढते हैं और बहादुर व्यक्ति रास्ता खोजते हैं।’ इसलिए बनी-बनाई लीक पर न चलकर, अपने रास्ते का निर्माण स्वयं करो। संसार में वही व्यक्ति सफल होता है, जो अपनी नवीन राहों का निर्माण स्वयं करता है और दाना मांझी की भांति |एकला चलो रे’ में विश्वास रख, निरंतर आगे बढ़ता चला जाता है, जब तक वह अपनी मंज़िल को प्राप्त नहीं कर लेता। इसके लिए आवश्यकता है, आत्मविश्वास, कठिन परिश्रम व उस जज़्बे की, जो आपको बीच राह में थक-हार कर बैठने नहीं देता। आप अपने हृदय में यह निश्चय कर लो कि आप में यह करने की क्षमता व सामर्थ्य है, तो आप तब तक चैन से नहीं बैठेंगे, जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। असंभव शब्द तो मूर्खों के शब्दकोश में होता है और वीर पुरुष ‘जो ठान लेते हैं, वही कर गुज़रते हैं।’ आप में साहस है; आप जो चाहें कर सकते हैं। इसलिए जीवन में निराशा का दामन मत थामिए, अन्य विकल्प की तलाश करें, मंज़िल आपकी प्रतीक्षा में पलकें बिछाए बैठी होगी।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।
पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी, #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com
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≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈