हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ किसलय की कलम से # 24 ☆ योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय )

☆ किसलय की कलम से # 24 ☆

☆ योग : कला, विज्ञान, साधना का समन्वय

महायोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से समूचा विश्व परिचित है । श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञान, उपदेश एवं कर्म-मीमांसा के साथ ध्यानयोग, भक्तियोग तथा ज्ञानयोग जैसे व्यापक विषयों का अद्वितीय ग्रंथ है। गीता में कृष्ण द्वारा योग पर जो उपदेश दिए गए हैं , वे समस्त प्राणियों की जीवन-धारा बदलने में सक्षम हैं। विश्व स्तर पर बहुसंख्य विद्वानों द्वारा गीता में वर्णित योग पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। योग क्रियाओं के माध्यम से जीवन जीने की कला में पारंगत मानव स्वयं को आदर्श के शिखर तक पहुँचाने में सफल होता है, इसीलिए योग को कला माना जाता है। योग में वे सभी वैज्ञानिक तथ्य भी समाहित हैं जिनको हम साक्ष्य, दर्शन, परिणाम एवं प्रयोगों द्वारा जाँच कर सत्यापित कर सकते हैं। योग से अनिद्रा, अवसाद, स्वास्थ्य आदि में धनात्मक परिणाम मिलते ही हैं। अतः योग विज्ञान भी है। सामान्य लोगों का योग की जड़ तक न पहुँचने तथा भगवान के द्वारा उपलब्ध कराये जाने के कारण यह दुर्लभ योग रहस्य से कम नहीं है। योग प्रेम-भाईचारा एवं वसुधैव कुटुंबकम् की अवस्था लाने वाली मानसिक एवं शारीरिक प्रक्रियाओं की आत्म नियंत्रित विधि है, जो मानव समाज के लिए बेहद लाभकारी है। आज की भागमभाग एवं व्यस्त जीवनशैली के चलते कहा जा सकता है कि योग निश्चित रूप से कला, विज्ञान, समाज को नई दिशा प्रदान करने में सक्षम है।

भगवान् कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी गई योग शिक्षा का उद्देश्य भी यही था है कि मानव तो मात्र निमित्त होता है, बचाने वाले या मारने वाले तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण हैं। श्रेय हेतु अर्जुन को युद्ध कर्म के लिए प्रेरित करने का आशय यह था कि वह इतिहास के पृष्ठों में कायर न कहलाए। महाभारत के दौरान अपने ही लोगों से युद्ध करने एवं अधार्मिक गतिविधियों के चलते धर्म-संस्थापना हेतु युद्ध की अनिवार्यता को प्रतिपादित करती योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण की यह दीक्षा ही अंतत: अर्जुन को युद्ध हेतु तैयार कर सकी, जिसका ही परिणाम धर्म सम्मत समाज की स्थापना के रूप में हमारे समक्ष आया।

उपरोक्त बातें बहुसंख्य साधकों तथा विद्वतजनों के चिंतन से भी स्पष्ट हुई हैं। यही  विषय मानव जीवन उपयोगी होने के साथ ही हमें आदिपुरुषों के इतिहास और तात्कालिक सामाजिक व्यवस्थाओं से भी अवगत कराता है। श्रीमद्भगवद्गीता में योग-दीक्षा का जो विस्तृत वर्णन है, उसकी विभिन्न ग्रंथों व पुस्तकों में उपलब्ध उद्धरणों एवं आख्यानों से भी सार्थकता सिद्ध हो चुकी है। योग को समझने के लिए गीता के छठे अध्याय का चिंतन-मनन एवं अनुकरण की महती आवश्यकता है।

साधना को योग से जोड़ने के संदर्भ में योगी का मतलब केवल गेरुआ वस्त्र धारण करना अथवा संन्यासी होना ही नहीं है, मन का रंगना एवं नियमित अभ्यासी होना भी है। स्वयं से सीखना, अहंकार मुक्त होना, सब कुछ ईश्वर का है और हम मात्र उपभोक्ता हैं, यह भी ध्यान में रखना जरूरी है। “मैं” का मिटना ही अपने आप को जीतना है। योग का मूल उद्देश्य परमात्मा की प्राप्ति मानकर आगे बढ़ने से मानव को बहुत कुछ पहले से ही मिलना प्रारंभ हो जाता है। इंद्रिय साधना से सब कुछ नियंत्रित हो सकता है। हठयोग के बजाए ‘शरीर को अनावश्यक कष्ट न देते हुए’ साधना से भी ज्ञान प्राप्त होता है, जैसे भगवान बुद्ध ने प्राप्त किया था । इसी तरह अभ्यास एवं वैराग्य द्वारा मानसिक नियंत्रण संभव है । महायोगेश्वर कृष्ण ने सभी साधकों को गीता के माध्यम से योग दीक्षा दी है, जिसका वर्तमान मानव जीवन में उपयोग किया जाए तो हमारा समाज वास्तव में नैतिक, मानसिक व शारीरिक रूप से उन्नत हो सकेगा।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

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