डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख  “एहसास)

☆ किसलय की कलम से # 25 ☆

☆ एहसास

मुझे लगता है, जब हम अपनी पूर्ण सामर्थ्य और श्रेष्ठता से कोई कार्य करते हैं, सेवा करते हैं या फिर प्रयास करते हैं तब सफलता के प्रति अधिक आशान्वित रहते हैं। सफलता मिलती भी है। सफलताएँ अथवा असफलताएँ समय एवं परिस्थितियों पर भी निर्भर करती हैं। ये परिस्थितियाँ उचित-अनुचित अथवा अच्छी-बुरी भी हो सकती हैं। अक्सर सफलता का श्रेय हम स्वयं को देते हैं, जबकि इसमें भी अनेक लोगों का योगदान  निहित होता है।

जब असफलता हाथ लगती है तब हम अपने भाग्य के साथ साथ दूसरों को भी कोसते हैं। कमियों को भी खोजते हैं।

सबसे महत्त्वपूर्ण बातें ये होती हैं कि उस समय हमें अपने द्वारा किये अधर्म, अन्याय, बुरे कर्म, अत्याचार, दुर्व्यवहार आदि की स्मृति अवश्य होती है। कदाचित पश्चाताप भी होता है।

आखिर  खुद या अपने निकटस्थों के अनिष्ट पर उपरोक्त कर्मों को स्मरण करते हुए हम घबराए, चिंतित और पश्चाताप की मुद्रा में क्यों आ जाते हैं, जबकि यह पूर्णरूपेण सत्य नहीं होता!

जब सफलता का श्रेय स्वयं को देते हैं तब असफलता अथवा अनिष्ट होने पर भाग्य को, अनैतिक कार्यों को, दुर्व्यवहार को दोष क्यों देते हो जबकि आप के द्वारा किये गए कार्य अथवा कमियाँ ही इसकी जवाबदार होती हैं। अब मुद्दे की बात ये है कि अनिष्ट को  अपने कर्मों, दुर्व्यवहारों और अनैतिक कार्यों का परिणाम निरूपित करने के पीछे उपरोक्त कारक सक्रिय क्यों हो जाते है। यह एक मानव का सामान्य स्वभाव है कि जब हताशा होती है तो हम अपने भूतकाल को स्मृतिपटल पर बार-बार दोहराते हैं और सोचते हैं, कहीं मेरे द्वारा किये गए फलां कार्य का यह परिणाम तो नहीं है। फिर ‘का बरसा जब कृषी सुखानी’ की तर्ज पर सोचने लगते हैं कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। पर “अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत” लेकिन ये सभी बातें हैं कि मानस पटल से ओझल होती ही नहीं। आशय यही है कि कहीं न कहीं हम भयभीत जरूर होते हैं कि हमारे दुष्कर्मों के कारण ही ये अनिष्ट हुआ है। इन परिस्थितियों में हमारे मन को “बुरे कर्म का बुरा नतीजा” की बात सही लगती है। वास्तव में भी यदि व्यापक दृष्टिकोण से देखा जाए तो कुल मिलाकर अंत में यही सिद्ध होता है और निष्कर्ष भी यही निकलता है कि हमें बुरे कर्मों से बचना ही चाहिए।

इसमें दो मत नहीं है कि यदि हम जीवन में सदाचार, सरलता, सादगी, सत्यता और संतोष अपना लेते हैं, तो कम से कम पिछले बुरे कर्मों को दोष देने से बच सकते हैं। इसे  जग के हर एक इंसान को एक चेतावनी के रूप में देखा जाना चाहिए कि अब इंसानियत पुनर्जीवित करने के लिए आपको एक अवसर और दिया जाता है।

इसीलिए बुरे वक्त में पिछली बुरी बातें याद आती हैं और उन गल्तियों का एहसास भी होता है, जो एक अच्छे इंसान के रूप में नहीं करना चाहिए थीं।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
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ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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