डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर एक लघुकथा ‘कम्फर्ट जोन’। लघुकथा पढ़ते पढ़ते अनायास ही लगा कि कभी माँ के स्थान पर संवेदनशील पिता को रख कर भी देखना चाहिए, पत्नी को घर लाने से बेटी को विदा करते और गृहस्थी बसाते देखते हुए। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस संवेदनशील लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 54 ☆
☆ लघुकथा – कम्फर्ट जोन ☆
कितना अच्छा शब्द है ना कम्फर्ट जोन? सुनते ही आराम का एहसास, वह मुस्कुराई। हर लडकी के लिए मायका ऐसा ही होता है। कितने साल बीत गए शादी को? उंगलियों पर गिनने लगी – बाईस साल? समय मानों पँख लगाकर उड गया? बेटी की शादी भी हो गई। कैसा होता है ना, बेटी को जान लगाकर प्यार- दुलार से पालो और विदा कर दो किन्हीं अनजान लोगों के साथ। हाँ जानती हूँ आजकल लव मैरिज हो रही है, लडका- लडकी पहले से ही एक – दूसरे को जानते हैं, प्री वेडिंग शूट भी होता है। सब पता है लेकिन यह सब काफी होता है क्या एक – दूसरे को जानने के लिए? असली जीवन तो तब शुरु होता है जब चौबीस घंटे साथ रहना पडता है, तब पता चलता है आटे-दाल का भाव। और शुरु हो जाता है यह कहना- शादी के पहले तो ऐसे नहीं थे तुम, बहुत बदल गए हो। मन ही मन वह मुस्कुराई, ऐसे ही आरोप – प्रत्यारोप लगाते धीरे- धीरे जीवन कट जाता है। समय तो पता नहीं कहाँ फुर्र हो जाता है। फ्लैशबैक की तरह जीवन का एक – एक पल उसकी खुली आँखों के सामने आ रहा था –
नई नवेली दुल्हन अपने घर से एक ऐसे परिवार में आ जाती है, जहाँ हर कोई अनजान है, सब कुछ नया। नई – नई बातें, परंपराओं का बदला रूप, नए- नए व्यंजन, तौर-तरीके और ना जाने क्या क्या सीखती है वह। वह सम्भालती है अपने आपको, अपनी आदतों को और अपनी यादों को भी, कभी आँसू भरी आँखों को ठंडे पानी के छींटे मारकर तो कभी बाथरूम में बिना मतलब पानी चलाकर। हर लडकी से यही उम्मीद की जाती है कि जितनी जल्दी हो सके सब कुछ अपना ले। अनकहा सा स्वर गूँजता है उस नए माहौल में – बदलो अपने आप को, खाना – पीना बदलो, बोलो भी उनकी तरह उनके तौर – तरीकों से, यहाँ तक कि सोचो भी वैसे ही। हर घर में यह अलग ढंग से होता है, कहीं उसे परंपराओं की फेहरिस्त पकडा दी जाती है तो कहीं आदेश – यहाँ जैसे कहा जाए वैसे ही रहना है।
उसका मन कब अपने जीवन की यादों से हटकर बेटी से जुड गया उसे खुद पता ही ना चला। उसका अंश उससे अलग है ही कहाँ, वह बेटी को नए माहौल में, नए रूप में ढलते देख रही थी। सब के बीच घुल – मिलकर भी उसे सुरक्षित रखना है अपना अस्तित्व, अपनी पहचान।
कितना कठिन है ना? पर औरतों को अब सीखना ही होगा यह सब।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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अनुपम रचना।
बहुत सुंदर अंत , सच है , नये युग में नारी को अपने ‘स्व’ अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखना है।