श्री राकेश कुमार
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 58 ☆ देश-परदेश – खेल खेल में ☆ श्री राकेश कुमार ☆
वर्तमान समय में किसी भी खेल को खेलने वाले तो बहुत कम हैं, लेकिन उसको लेकर विभिन्न सामाजिक मंचों पर चर्चा/ प्रतिक्रिया करने वाले बहुतायत में पाए जाते हैं।
विगत एक पखवाड़े से सभी जगह फुटबॉल को लेकर ही चर्चा हो रही है।
हमारे जैसे जिन्होंने जीवन में शायद ही कभी फुटबॉल को किक क्या हाथ भी नहीं लगाया होगा, वो भी पेनल्टी शूट को गोल में कैसे परिवर्तित करने का ज्ञान बघार रहे हैं।
खेल का बाजारीकरण हो जाने से सभी सक्रिय मीडिया के साधन विज्ञापन प्राप्त कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं।
खेलों को लेकर इतना उन्माद क्यों है। इसी प्रकार जीत का भी आवश्यकता से अधिक जश्न मानने की होड़ लगी रहती है।
स्वयं श्रम करने के स्थान पर दूसरों की जीत/ हार पर वाणी से या व्हाट्स ऐप पर ही कॉपी/ पेस्ट कर समय बर्बाद करने में हमारा कोई सानी नहीं है। चार कदम दूरी के कार्य को भी बाइक/ कार द्वारा करने वाले खेल के मैदान में क्या खाक कुछ कर पाएंगे ?
क्रिकेट, टेनिस इत्यादि को छोड़ कर हमारे देश में विगत सत्तर वर्ष से कोई उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं कही जा सकती है। हॉकी जैसे खेल जिसके हम सिरमौर हुआ करते थे, आज हाशिये पर खड़े हैं।
विदेश में खेलों को प्रोफेशनल रूप में अपनाया जाता है। जबकि हमारे यहां अध्ययन में कमज़ोर बच्चे ही खेल को प्राथमिकता देते हैं।
बाल्यकाल में दादाजी की वाणी भी कुछ ऐसा ही कहती थी “पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब! खेलोगे कूदोगे तो बनोगे खराब!!”
© श्री राकेश कुमार
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