डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख नकली सुखों का त्याग यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 75 ☆
☆ नकली सुखों का त्याग ☆
‘‘नकली सुखों के बजाय ठोस उपलब्धियों के पीछे समर्पित रहिए’ कलाम जी का यह सार्थक संदेश अनुकरणीय है, अनुसरणीय है। मानव को सांसारिक सुखों के पीछे नहीं भागना चाहिए, क्योंकि वे क्षणिक होते हैं, सदैव रहने वाले नहीं। ‘ब्रह्म सत्यं,जगत् मिथ्या’ अर्थात् ईश्वर के अतिरिक्त संसार की हर वस्तु नश्वर है, क्षणिक है और माया के कारण ही वह हमें सत्य भासती है। सो! मानव शरीर भी पानी के बुलबुले की भांति पल-भर में नष्ट हो जाता है। जिस प्रकार कुंभ अर्थात् घड़े का जल बाहरी जल में विलीन हो जाता है; जिस जल में वह कुंभ रखा होता है। उसी प्रकार पंच-तत्वों द्वारा निर्मित शरीर के नष्ट हो जाने पर वह उनमें समा जाता है और आत्मा परमात्मा में समा जाती है। यही है मानव जीवन की दास्तान… जैसे प्रभात की बेला में समस्त तारागण अस्त हो जाते हैं, उसी प्रकार संसार की हर वस्तु व सुख क्षणिक है, नश्वर हैं। इसलिए हमें नकली सुखों की अपेक्षा, ठोस उपलब्धियों के पीछे भागना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है…अपनी सोच को सार्थक व ऊंचा रखने की। यदि हम बड़े सपने देखेंगे; तभी हम उन्हें साकार कर पाने की तमन्ना रखेंगे और यदि हमारी इच्छा-शक्ति प्रबल व सोच सकारात्मक होगी, तो ही हम उस मुक़ाम पर पहुंच पाएंगे; जहां तक पहुंचने की मानव कल्पना भी नहीं कर सकता। सो! ‘खुली आंखों से ऊंचे स्वप्न देखिए और उन्हें साकार करने के लिए स्वयं को जी-जान से झोंक दीजिए…एक दिन परिश्रम अवश्य रंग लायेगा। इसके निमित्त आवश्यकता है–दृढ़-संकल्प व प्रबल इच्छाशक्ति की; जो मानव को उसकी मंज़िल तक पहुंचाने का सर्वोत्तम साधन हैं।
मानव जब ‘एकला चलो रे’ सिद्धांत को जीवन में अपना कर, अपनी राह की ओर अग्रसर होता है, तो बाधाएं, आलोचनाओं के रूप में उसकी राह में उपस्थित होती हैं। इसलिए मानव को कभी भी हताश-निराश नहीं होना चाहिए, बल्कि उनसे सीख लेकर अपने पथ पर निरंतर अग्रसर होना चाहिए तथा निंदक व दोष-दर्शकों के प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए; जिन्होंने हमें ग़लत राह को तज, सही राह पर चलने का संदेश दिया है, मार्ग सुझाया है।
यह सत्य है कि आलोचनाएं पथ-अवरोधक नहीं, पथ-प्रदर्शक व साधक होती हैं। वे मानव के आचार- विचार व व्यवहार को संवारती हैं तथा दुर्गुणों को त्याग, सत्मार्ग पर चलने को प्रेरित करती हैं। वास्तव में आलोचनाएं वे साबुन हैंँ, जिसका प्रयोग कर मानव आत्मावलोकन द्वारा आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अग्रसर होता है। आलोचना से अंत:दृष्टि जाग्रत होती है, जिससे हमें अपने दोषों का दिग्दर्शन होता है और उन्हें त्याग कर हम सत्य की राह पर अग्रसर होते हैं। इस तथ्य में कबीरदास जी का यह दोहा सार्थक प्रतीत होता है, जिसके अंतर्गत मानव को, निंदक को अपने आंगन में तथा अपने आसपास रखने का संदेश दिया गया है। निंदक वह नि:स्वार्थ प्राणी है, जो अपने से अधिक, आपके बारे में सोचने व चिंतन करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करता है…आपके हितों की रक्षा के प्रति चिंतित रहता है।
सो! आलोचक व निंदक के हितों की ओर दृष्टिपात करना आवश्यक है। निंदक दूसरों की निंदा करने में प्रसन्न रहता है तथा केवल उनके दोषों-अवगुणों व बुराइयों को तलाश कर, उन्हें उजागर करने में सुक़ून प्राप्त करता है। परंतु आलोचक उसके समस्त पहलुओं को समझकर, उसके गुणों व दोषों का सांगोपांग चित्रण करता है। वह नीर-क्षीर विवेकी होता है तथा ईर्ष्या-द्वेष से सदैव दूर रहता है। आलोचक साहसी व विवेकशील होता है तथा संबद्ध पक्षों पर चिंतन कर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करता है। आलोचक इधर-उधर की नहीं हांकता, जबकि निंदक मानव के दोषों-बुराइयों को तलाश कर; उनका अतिशयोक्ति-पूर्ण वर्णन कर अपने दायित्व की इतिश्री स्वीकारता है। उसे सावन के अंधे की भांति उसकी अभिरुचि के अनुकूल, उसमें केवल दोष ही दोष नज़र आते हैं।
‘जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि’ अर्थात् जैसी हमारी सोच होती है; सृष्टि हमें वैसी ही दिखाई पड़ती है। जीवन में संतुलन बनाए रखने के लिए सकारात्मक सोच की दरक़ार रहती है। उसके रहते हमें संसार सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् भावों से आप्लावित दिखाई पड़ता है। जो सत्य होगा; वह कल्याणकारी व सुंदर अवश्य होगा। इसलिए आवश्यकता है–तुच्छ स्वार्थों को त्याग कर महानता प्राप्त करने की। यदि हम इस तथ्य का विश्लेषण करें, तो इसके पीछे हमारी मानसिकता झलकती है। यदि हमारा लक्ष्य उच्च व महत्तर होगा, तो हम संकीर्ण मानसिकता को त्याग, लक्ष्य-प्राप्ति की ओर पूर्ण मनोयोग से अग्रसर रहेंगे। हमारा ध्यान उसी की ओर केंद्रित रहेगा और हम अपनी समस्त ऊर्जा उसकी प्राप्ति में लगा देंगे। लक्ष्य के प्रति संपूर्ण समर्पण हमें उस महानतम् शिखर पर पहुंचा देगा।
एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘मानव से पहले उसकी प्रसिद्धि, गुणवत्ता व उसका अच्छा-बुरा आचार-व्यवहार पहुंच जाता है; जिसे अनुभव कर मानव अचम्भित रह जाता है। वैसे भी शब्द नहीं, मानव के कार्य बोलते हैं, जिसे लोग तरज़ीह देते हैं। सो! मानव को अपने अंतर्मन में दैवीय गुणों स्नेह, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, त्याग, सहनशीलता आदि को विकसित करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। ये हमें दिव्य मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं…क्षुद्र वासनाओं को त्याग सत्मार्ग की ओर प्रवृत्त करते हैं। यही जीवन का ध्येय है, प्रेय है, सफलता है।
इसी संदर्भ में, मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगी…साहित्यिक जगत् व समाज के हर क्षेत्र में व्याप्त ख़ेमों की ओर… परंतु यहां हम साहित्यिक पक्ष पर ही चर्चा करेंगे। ऐसे महारथियों की आश्रयस्थली में शरण ग्रहण किए बिना अस्तित्व-बोध व यथोचित स्थिति बनाए रखने की कल्पना बेमानी है। परंतु इनकी शरण में जाकर, आप वह सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं, जिसके आप योग्य हैं ही नहीं तथा आप में उसे पाने का रत्ती भर सामर्थ्य भी नहीं है। आप रातों-रात साहित्य जगत् के देदीप्यमान सूर्य के रूप में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया वाले आपका साक्षात्कार लेकर स्वयं को धन्य समझते हैं। चारों ओर आपकी तूती बोलने लग जाती है। इसके लिए आपको केवल अपने अहं व अस्तित्व को मिटाना होता है और साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करना उसकी प्रथम सीढ़ी है। सो!अन्य दायित्वों व अपेक्षाओं की कल्पना तो आप स्वयं बखूबी कर ही सकते हैं।
सो! ग़लत व अनुचित ढंग से प्राप्त की गई प्रसिद्धि कभी स्थायी व सम्मान-जनक नहीं होती है, क्योंकि जो भी आपको बिना प्रयास के सहसा मिल जाता है, क्षणिक होता है और उससे आपको स्थायी संतोष व संतुष्टि प्राप्त नहीं हो सकती। परिश्रम सफलता की कुंजी है और उससे प्राप्त परिणाम का प्रभाव चिरस्थायी होता है। आपको हर क्षेत्र में केवल संतोष व सफलता ही प्राप्त नहीं होती; हर जगह आप की सराहना व प्रशंसा भी होने लगती है…आपके नाम की तूती बोलने लगती है। परंतु इन परिस्थितियों में भी यदि आपके हृदय में अहं-भाव जाग्रत नहीं होता, तो यह आपकी अनवरत साधना व परिश्रम का सु-फल होता है।
ध्यातव्य है कि मनचाही वस्तु व सफलता को पा लेने की बेचैनी व खो देने का डर मानव को सदैव आकुल-व्याकुल व आहत करता रहता है। वह सदैव हैरान-परेशान और तनाव-ग्रस्त रहता है। परंतु मानव को मिथ्या सुखों को नकार कर, शाश्वत सुखों की प्राप्ति की ओर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि वह अलौकिक है, आनंद-प्रदाता है; शब्दातीत व कल्पनातीत है…जिसे प्राप्त कर वह राग-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठ जाता है तथा सदैव अनहद-नाद में आकंठ डूबा रहता है। सो! वास्तविक सुखों को प्राप्त करने का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है–भौतिक सुखों का त्याग, अहं का विसर्जन, सत्मार्ग पर चलने का दृढ़-निश्चय व आत्मावलोकन करने की प्रबल इच्छा-शक्ति….यही मुख्य उपादान हैं लख चौरासी से मुक्ति पाने के; जहां पहुंच कर मानव की क्षुद्र वासनाओं का अंत हो जाता है और उसे कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है, जिस अलौकिक आनंद में अवग़ाहन कर वह आजीवन सुक़ून पाता है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,
#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
तथ्य युक्त सार्थक सोच से परिपूर्ण रचनाधर्मिता अभिनंदन मंगलसुप्रभात बधाई आदरणीया श्री