डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं।आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “इंसान का आदर्श होना जन्मजात नहीं है”. )
☆ किसलय की कलम से # 30 ☆
☆ इंसान का आदर्श होना जन्मजात नहीं है ☆
जब हम सामाजिक व्यवस्थाओं के दायरे में रहकर जीवनयापन करते हैं तब भी हमें अनेक तरह से सीख मिलती है। हमारे नेक सिद्धांत ही हमें आदर्श पथ पर चलने हेतु प्रेरित करते हैं, और यही सन्देश समाज में भी जाता है। हमारे द्वारा किये जाने वाले ऐसे आचार-व्यवहार दूसरों को इस दिशा पर चलने के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं। इंसान का आदर्श होना कोई जन्मजात गुण नहीं होता। हम समाज में रहकर ही सामाजिक गतिविधियों को निकट से देख पाते हैं। यदि हम अपने चिंतन और मनन से अच्छाई-बुराई एवं हानि-लाभ के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष परिणाम की सूक्ष्मता से थाह लें तो हम उचित एवं अनुचित के काफी निकट पहुँच जाते हैं। इन दोनों पहलुओं में हमें उचित पहलू पर सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है तथा अनुचित पहलू के प्रति नकारात्मक रुख भी अपनाना होता है। सकारात्मक दृष्टिकोण ही हमारे आदर्श मार्ग का प्रथम चरण होता है। हमारी भावनायें, हमारे संस्कार, हमारी शिक्षा-दीक्षा और हमारी लगन का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। हम प्रायः इनके द्वारा ही उचित और अनुचित का फर्क सहजता से समझ पाते हैं। अपने धीरज और विवेक से अनुचित का प्रतिकार नियोजित ढंग से कर सकते हैं। जैसे परिग्रह की प्रवृति मनुष्य को कहीं न कहीं लोभी और स्वार्थी बनाती है। आवश्यकता से अधिक संग्रह ही हमें वास्तविक कर्म से विलग करता है। एक सच्चे इंसान का कर्त्तव्य अपनी बुद्धि एवं विवेक का सदुपयोग करना माना गया है । समाज के काम आना और समाज में रहते हुए परस्पर भाईचारे का परिवेश निर्मित करना हर मनुष्य का सिद्धांत होना चाहिए। समाज का उत्थान हम सब की अच्छाईयों पर निर्भर करता है। बुराई समाज को पतन की ओर ले जाती है। हम सुधरेंगे तो जग सुधरेगा। तब हम स्वयं से ही शुरुआत क्यों न करें। कल हमारा परिवार, हमारा मोहल्ला और हमारा नगर इस हेतु प्रेरित होगा। दीप से दीप जलेंगे तो तिमिर हटेगा ही। जब हम एक से दो , दो से चार होंगे तब जग में सुधार की लहर बहना सुनिश्चित है और उसकी परिणति भी सुखद होगी। निश्चित रूप से हमारे मन में आएगा कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कि संपूर्ण जग सुधर जाए? परंतु लोग ऐसा सोचते ही क्यों हैं? यदि पेड़ लगाने वाला सोचने लगे कि मुझे उसके फल चखने को मिलेंगे ही नहीं तो मैं पेड़ क्यों लगाऊँ? तब तो हमारे पूर्वजों ने पेड़ क्यों लगाये! यदि हम पेड़ नहीं लगाएँगे तो हमारी अगली पीढ़ी आपको कैसे याद करेगी । बस यही बात है आपको याद किए जाने की। आप के कर्त्तव्य और आपका सामाजिक योगदान ही आप की धरोहर है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है और हमारा समाज इसका संवाहक होता है।
हमारी गीता में लिखा है-
‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’
जिसका आशय हमें यह लगाना चाहिए कि हम कर्म करेंगे तो उसका फल हमें अवश्य प्राप्त होगा। एक-एक बिंदु से रेखा निर्मित होती है, रेखाओं से अक्षर, अक्षरों से शब्द और यही शब्द अभिव्यक्ति के माध्यम बनते हैं। शब्दशक्ति से कौन अपरिचित है? विश्व की हर क्रांति के पीछे शब्दशक्ति का अहम् योगदान है। बड़ी से बड़ी क्रांति भी विफल हो गई होती यदि अभिव्यक्ति जन-जन तक नहीं पहुँचती। तात्पर्य यह है कि एक बिंदु या एक इंसान भी आदर्श मार्ग पर चलेगा तो वह रेखा जैसा बिंदु समूह या सकारात्मक सोच, यूँ कहें कि उस जैसे लोगों का समूह तैयार होगा जिसमें समाज को नई चेतना और विकास के पथ पर अग्रसर करने की सामर्थ्य होगी । जीवन में ऐसा नहीं है कि इंसान संपन्न एवं उच्च पदस्थ होकर आम आदमी के दुख दर्द का एहसास नहीं कर सकता। परिस्थितिजन्य विचार और दृष्टिकोण वह सब करने की इजाजत नहीं देते जो उसके अंदर विद्यमान एक ‘साधारण आदमी’ करना चाहता है । आखिर ऐसा क्यों करता है यह विशिष्ट वर्ग?
उपरोक्त विशेष वर्ग के आचरण ही समाज में दूरियाँ पैदा करते हैं। हम सदियों से देखते आ रहे हैं कि इस वर्ग की आयु बहुत ही कम होती है। हम जानते हैं कि झूठ और अनैतिकता की बुनियाद पर खडा इंसान कभी स्थायित्व प्राप्त नहीं कर सकता। बात तो तब है जब इंसान इंसान के काम आए। ऊँच-नीच, छोटे-बड़े और अमीर-गरीब के बीच की खाई पार्टी जाए। जीव अमर नहीं होता। संपन्नता और विपन्नता जब यहीं पर धरी रह जाना है तो फिर ये बातें लोगों की समझ के परे क्यों होती हैं, कम से कम हम अपने व्यवहार और वाणी से मधुरता तो घोल ही सकते हैं। मनुष्य जब जन्म लेता है तो उसे पेट के साथ दो हाथ और दो पाँव मिलते ही इसीलिए हैं कि वह इनसे अपना और अपने परिवार का भरणपोषण कर सके। यदि हम महत्त्वाकाक्षियों, ईर्ष्यालु और विघ्नसतोषियों को छोड़ दें तो शायद ही कुछ प्रतिशत लोग ऐसे होंगे जो उच्चवर्गीय लोगों के संबंधों से कोई विशेष उम्मीद करते हों। आम इंसान को अपनी मेहनत और लगन पर पूरा भरोसा रहता है, यह होना भी चाहिए। वह जीवन में आगे बढ़ना तो चाहता है परंतु अच्छी नियत से। बुराई तो घोली जाती है। ईश्वर तो हमें इस प्यारी धरती पर निश्छल ही भेजता है। आदमी छोटा हो या बड़ा, यदि उसमें निश्छलता भरी है तो वह सच्चे अर्थों में इंसान है।
इंसान को सदैव स्वयं के अतिरिक्त दूसरों के लिए भी जीना चाहिए। अपने लिए तो हर कोई जी लेता है। हमारे व्यवहार और हमारी भाषा ही हमें समाज में यथायोग्य स्थान पर प्रतिष्ठित कराते हैं। हमारे सत्कर्म हमें स्वयं यश-कीर्ति दिलाते हैं। निःस्वार्थभाव से की गई परसेवा का प्रतिफल सदैव समाज हितैषी और आत्मसंतुष्टिदायक होता है।
तुलसी-कबीर, राणा-शिवाजी, लक्ष्मीबाई, गांधी, विनोवा भावे, मदर टेरेसा ऐसे ही नाम हैं जो इतिहास के पन्नों में अमर रहेंगे। हम इतिहास उठाकर देख सकते हैं कि अधिकतर यादगार शख्सियतें सम्पन्नता या महलों में पैदा नहीं हुईं और पैदा हुई भी हैं तो शिक्षित होते होते वैभव और कृत्रिम चकाचौंध से निर्लिप्त होती गईं, क्योंकि सच्चरित्र, सद्ज्ञान और शिक्षा आपस में नजदीकियाँ बढ़ाते हैं। वैभव और प्रासाद सदैव आम आदमी को उच्चवर्ग से दूर रखता आया है। हमारा चरित्र और हमारा व्यवहार दिल दुखाने वाला कभी नहीं होना चाहिए। अपनी वाणी और सहयोगी भावना से दूसरों को दी गई छोटी से छोटी खुशी भी आपको चौगनी आत्मसंतुष्टि प्रदान कर सकती है। आप एक बार इस पथ पर कदम बढ़ाएँ तो सही। मुझे विश्वास है कि आपकी जिंदगी में अनेक सकारात्मक परिवर्तन परिलक्षित होने लगेंगे, जिन पर आपको स्वयं विश्वास नहीं होगा। यह एक सच्चाई है कि नजदीकियों से गुणों का आदान-प्रदान होता है। हम अच्छाई के निकट रहेंगे तो अच्छे बनेंगे। बुराई के निकट रहेंगे तो बुरे बनेंगे। हम-आप जब अपनी स्मृति पर जोर डालते हैं तो बुरे लोगों की बजाए जेहन में अच्छे लोग ज्यादा आते हैं। सीधी सी बात है बुरे लोगों को कोई भी याद नहीं रखना चाहता। बुरे लोग केवल उदाहरण देने हेतु ही याद रखे जाते हैं। हमारा ध्येय स्पष्ट है कि सच्चाई, परोपकार और सौहार्द की दिशा में बढ़ाए गए कदम हमें आदर्श की ओर ले जाएँगे।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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आदरणीय अग्रज,
ई-अभिव्यक्ति में आलेख को स्थान देने हेतु आभार।