श्री शांतिलाल जैन
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक व्यंग्य “ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 17 ☆
☆ व्यंग्य – ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा ☆
आर्यावर्त का नागरिक श्रीमान, रिश्वत देकर दुखी नहीं है – रिश्वत देकर भी काम नहीं होने से दुखी है. उस दिन दादू मुझे भी अपने साथ ले गया, दफ्तर में सीन कुछ इस तरह था.
“गज्जूबाबू, आपने ही थर्टी थाउजन्ड की कही थी. अब पाँच और किस बात के ? पहली बार में आपने जित्ते की कही उत्ते पूरे अडवांस में गिन दिये हैं हम.”
“अरे तो तो कौन सा एहसान कर दिया यार ? काम के बदले में ही तो दिये हो ना. लाइसेन्स फिरी में बनते हैं क्या ? सत्तर टका तो साहब को ही शेयर करना पड़ता है. बाँटने-चुटने के बाद हमारे पास बचेगा क्या..” – वे ‘बाबाजी का कुछ’ जैसा बोलना चाह रहे थे मगर रुक गये.
“हमने आपसे मोल-भाव तो करा नहीं, कि आदरणीय गजेंद्र भाई साब दो हजार कम ले लीजिये, प्लीज……जो अपने कही सोई तो हमने करी, अब आप आँखे तरेर रहे हो ?”
“अरे तो दफ्तर में जिस काम का जो कायदा बना है सो ही तो लिया है. रेट उपरवालों ने बढ़ा दिये तो क्या मैं अपनी जेब से भुगतूंगा?”
सारी हील-हुज्जत दफ्तर में, वर्किंग-डे में, गज्जूबाबू की डेस्क पर ही चल रही थी. ब्रॉड-डे लाईट में ब्लैक डील. मीटर भर के रेडियस में बैठे सहकर्मी और कुछ आगंतुक सुन तो पा रहे थे मगर असंपृक्त थे, मानों कि आसपास कुछ भी असामान्य नहीं घट रहा है. नियम कायदे से गज्जूबाबू सही हैं और नैतिक रूप से दादू. ब्लैक अब ब्लैक नहीं रहा.
“पर जुबान की भी कोई वेलू होती है गज्जूबाबू.”
“तुम कुँवर गजेंद्रप्रताप सिंह की जुबान को चैलेंज करोई मती” – तमतमा गये वे – “जो गज्जूबाबू ने ठेकेदारों की कुंडलियाँ बांचनी शुरू की ना तो सबकी जुबान को फ़ालिज मार जायेगा.”
“नाराज़ मत होईये आप. इस बार थर्टी में कर दीजिए, अगली बार बढ़ाकर ले लेना.”
“यार तुम ऐसा करो, वापस ले जाओ एडवांस, हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. यहाँ दस लोग लाईन लगाकर पैसे देने को तैयार खड़े हैं, और तुमसे ज्यादा देने को तैयार हैं.”
मैंने धीरे से समझाया – “दादू, देश में पूरे एक सौ तीस करोड़ लोग रिश्वत दे कर काम कराने का मन बना चुके हैं. कॉम्पटीशन लगी पड़ी है, कौन ज्यादा देकर काम करा ले जाता है. इसी काम के कैलाश मानके चालीस देने को तैयार है, कह रहा था एक बार एंट्री मिल जाये बस.”
“ठीक है गज्जूबाबू. नाराज़ मत होईये, पाँच और दिये देते हैं, आप तो लायसेंस निकलवा दीजिये.”
“नहीं, अब हम नहीं कर रहे तुम्हारा काम. वो तो तुम ठहरे मनख हमारे गाँव-दुआर के, सो तुम्हें लिफ्ट दे दी…….वरना कमी है क्या काम करानेवालों की. तुम तो अपना एडवांस वापस ले जाओ.” – कहकर वे जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने की एक्शन करने लगे, मानो कि लौटा ही देंगे एडवांस.
“गुस्सा मत करिये भाई साब, गाँव-दुआर के लानेई रिक्वेस्ट करी आपसे.” – दादू ने मानिकचंद का पाउच खोलकर ऑफर किया जो स्वीकार कर लिया गया. भरे मुँह से कुछ देर और ज़ोर करवाया गज्जू बाबू ने, फिर डेस्क के नीचे की डस्टबिन में गुटका और गुस्सा दोनों थूक कर पूरे पाँच जेब के हवाले किये. टेबल के नीचे से नहीं, न ही बाहर चाय के ठेले पर कोडवर्ड के साथ. ग्राउंड जीरो पर ही.
हम इस सुकून के साथ बाहर निकले कि रिश्वत के एरियर भुगतान भी कर दिया है, अब तो शायद काम हो ही जाये. निकलते निकलते मैंने कहा – “दादू आप लक्की हो, बक़ौल ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के ‘द इंडिया करप्शन सर्वे 2019’ के आप देश के उन 51 फीसदी लोगों में शुमार हो जो जिन्होने बीते एक बरस में रिश्वत देने का काम किया है. अब ये जो बचे 49 फीसदी लोग हैं ना, ये भी देना तो चाहते थे बस गज्जू बाबूओं तक पहुँच नहीं पाये.”
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और सीसीटीवी ? कमाल करते हैं आप – देश और दफ्तर दोनों के खराब पड़े हैं.
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शांतिलाल जैन.
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