श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।
श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
रात चढ़ रही है। एक मकान में घनघोर कलह जारी है। सास-बहू के ऊँचे कर्कश स्वर गूँज रहे हैं, साथ ही किसी जंगली पशु की तरह पुरुष स्वर की गुर्राहट कान के पर्दे से बार-बार टकरा रही है। अनुमान लगाता हूँ कि घर के बच्चे किसी कोने में सुन्न खड़े होंगे। संभव है कि डर से रो रहे हों जिनकी आवाज़ कर्कश स्वरों का मुकाबला नहीं कर पा रही हो। बच्चों की मनोदशा और उनके मन पर अंकित होते प्रभाव को नज़रअंदाज़ कर असभ्यता का तांडव जारी है।
‘थिअरी ऑफ इवोल्युशन’ या क्रमिक विकास का सिद्धांत आदमी के सभ्य और सुसंस्कृत होने की यात्रा को परिभाषित करता है। यह केवल एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय होने की यात्रा भर नहीं है। संरचना के संदर्भ में विज्ञान की दृष्टि से यह सरल से जटिल की यात्रा भी है। ज्ञान या अनुभूति की दृष्टि से देखें तो संवेदना के स्तर पर यह नादानी से परिपक्वता की यात्रा है। विकास गलत सिद्ध हुआ है या उसे पुनर्परिभाषित करना है, इसे लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है।
लेकिन यहाँ चीखने-चिल्लाने के अस्पष्ट शब्दों में सबसे ज़्यादा स्पष्ट हैं पुरुष द्वारा बेतहाशा दी जा रही वीभत्स गालियाँ। माँ, पत्नी, बेटी की उपस्थिति में गालियों की बरसात। दुर्भाग्य की बात यह है कि यह बरसात निम्न से लेकर उच्चवर्ग तक अधिकांश घरों में परंपरा बन चुकी है।
क्रोध के पारावार में दी जा रही गाली के अर्थ पर गाली देनेवाले के स्तर पर विचार न किया जाए, यह तो समझा जा सकता है। उससे अधिक यह समझने की आवश्यकता है कि घट चुकने के बाद भी उसी घटना की बार-बार, अनेक बार पुनरावृत्ति करनेवाले का बौद्धिक स्तर इतना होता ही नहीं कि वह विचार के उस स्तर तक पहुँचे।
वस्तुतः क्रोध में पगलाते, बौराते लोग मुझे कभी क्रोध नहीं दिलाते। ये सब मुझे मनोरोगी लगते हैं, दया के पात्र। बीमार, जिनका खुद पर नियंत्रण नहीं होता।
अलबत्ता गाली को परंपरा बनानेवालों के खिलाफ ‘मी टू’ की तरह एक अभियान चलाने की आवश्यकता है। स्त्रियाँ (और पुरुष भी) सामने आएँ और कहें कि फलां रिश्तेदार ने, पति ने, अपवादस्वरूप बेटे ने भी गाली दी थी। अपने सार्वजनिक अपमान से इन गालीबाज पुरुषों को वही तिलमिलाहट हो सकती है जो अकेले में ही सही गाली की शिकार किसी महिला की होती होगी।
गाली शाब्दिक अश्लीलता है, गाली वाचा द्वारा किया गया यौन अत्याचार और लैंगिक अपमान है। सरकार ने जैसे ‘नो स्मोकिंग जोन’ कर दिये हैं, उसी तरह गालियों को घरों से बाहर करने, बाहर से भी सीमापार करने के लिए एक मुहिम की आवश्यकता है।
आइए, ‘नो एब्यूसिंग’ की शपथ लें। गाली न दें, गाली न सुनें। गाली का सम्पूर्ण निषेध करें। व्यक्तिगत स्तर पर # No Abusing आरंभ कर रहा हूँ। आप भी साथ दें, इस अभियान से जुड़ें।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
गाली देने की अश्लीलता को रोकने के लिए यथासंभव क़दम उठाने चाहिए । क्या मालूम “नो एब्यूजिंग ‘ सहभागिता किसी के जीवन में सौहार्द का रंग भर सकती है , साथ देना हर एक नागरिक का कर्तव्य है -अनुकरणीय कार्य आदरणीय , अभिवादन
साथ देने के लिए हृदय से आभार आदरणीय।
गाली से सुनने वालों के मन घृणा से भर जाते हैं तथा समाज प्रदूषित होता है। ऐसे में इसको रोकने के कड़े नियम अपनाये जाने अत्यंत आवश्यक हैं। बहुत सुंदर पहल संजय जी।
साथ देने के लिए हृदय से आभार आदरणीय।