श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “हीला हवाली”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 55 – हीला हवाली ☆
अक्सर लोग परिचर्चा की दिशा बदलने हेतु एक नया राग ही छेड़ देते हैं। बात किसी भी विषय पर चल रही हो पर उसे अपनी ओर मोड़ने की कला तो कोई गिरधारी लाल जी से सीखे। सारी योजना धरी की धरी रह जाती है, जैसे ही उनका प्रवेश हुआ कार्य विराम ही समझो। नयी योजना लिए हरदम यहाँ से वहाँ भटकते रहते हैं, उनके पास खुद का कुछ भी नहीं होता बस दूसरे पर निर्भर रहकर एक झटके से सब कुछ हड़पने में उन्हें महारत हासिल होती है।
पहले की बात और थी जब लोग रिश्तों, उम्र व अनुभवों का लिहाज करते थे, परंतु जब से जीवन के हर पहलुओं पर तकनीकी घुसपैठ हुई है, तब से अनावश्यक की भावनाओं पर मानो अंकुश लग गया हो। किसी के प्रोत्साहन की बात पर तो सभी लोग सहमत होते हैं लेकिन जैसे ही ये कार्य उनके जिम्मे आता है, तो तुरंत ही सर्वेसर्वा बनकर लोगों को बड़ी तेजी से धक्का मारते नजर आते हैं। कारण पूछने पर हमेशा की तरह हीला हवाली से भरे एक ही तरह के उत्तरों की झड़ी लगा देते हैं। अब बेचारा मन इस तरह के अनुभवी उत्तरों के तैयार ही नहीं होता है, सो एक ही झटके में सारा मनोबल छूमंतर हो जाता है और गिरधारी लाल जी मन ही मुस्कुराते हुए सब कुछ लील जाने का जश्न मनाने लगते हैं। जिसने आयोजन का खर्चा किया वो चुपचाप लीलाधर की लीला देखता रह जाता है।
किसी के तीर से किसी का शिकार बस अनजान बनकर लाभ लेते रहो। ये सब सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही जा रहा था तभी खैराती लाल जी अपनी लार टपकाते हुए आ धमके। कहने लगे क्या चल रहा है,कोई मुझे भी तो बताएँ, आखिर मैं यहाँ का सबसे पुराना सदस्य हूँ। तभी चकमक लाल जी ने मौका देखकर अपना राग भी अलाप ही दिया, क्या करें? जो भी तय करो, तो ये गिरधारी लाल जी हड़प लेते हैं। अरे आपके पास भी तो अपनी टीम है वहीं माथा पच्ची कीजिए यहाँ हमारी योजनाओं पर पानी फेरने हेतु काहे पधार जाते हैं। आप की बातों पर यहाँ कोई ध्यान नहीं देता,तो काहे ज्ञान बघार रहें हैं।
कुटिलता भरी मुस्कान के साथ गिरधारी लाल जी ने एक बार चकमक लाल जी की ओर व एक बार खैराती लाल जी की ओर देखकर गंभीर मुद्रा बनाते हुए कहा, आजकल तो भलाई का जमाना ही नहीं रहा। सब चकाचौंध में डूब कर भाषा का सत्यानाश कर रहे हैं। अरे भाई जब सब कुछ मैं मुफ्त में ही कर देता हूँ तो आप लोग काहे इधर-उधर भटकते हुए अपना धन और श्रम दोनों व्यर्थ करते हैं। जाइये चैन की बंशी बजाते हुए अपने अधिकारों हेतु आंदोलन करिए आखिर कर्तव्यों की पूर्ति हेतु आपका बड़ा भाई जोर -शोर से लगा हुआ है। सारी मेहनत हमारी टीम कर रही है, आप तो बसुधैव कुटुंबकम का पालन कर अपने साथ देश -विदेश के लोगों को जोड़िए और इसे अंतरराष्ट्रीय रूप देकर भव्य बनाइए।
चर्चा का इतना खूबसूरत अंत तो आप ही कर सकते हैं, चकमक लाल जी ने खिसियानी मुद्रा बनाते हुए अपने कदम बढ़ा बाहर की ओर बढ़ा लिए।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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