श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 56 – कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा… ☆
साधना किसी की भी हो परन्तु आराधना तो मेरी ही होनी चाहिए। इसी को आदर्श वाक्य बनाकर लेखचन्द्र जी सदैव की तरह अपनी दिनचर्या शुरू करते हैं। जो कुछ करेगा, उसे बहुत कुछ मिलेगा, ये राग अलापते हुए वे निरंतर एक से बड़े एक फैसले धड़ाधड़ लेते जा रहे हैं। और उनके अनुयायी, रहिमन माला प्रेम की जिन तोड़ो चिटकाय के रास्ते पर चलते हुए हर आदेशों को प्रेम भाव से स्वीकारते जा रहें हैं। भई विश्वास हो तो ऐसा कि आँख, कान, मुँह बंद कर भी किया जा सके। हो भी क्यों न उनके आज तक के सभी निर्णय सफल हुए हैं,ये बात अलग है कि इस सफलता के पीछे मूलभूत आधार स्तम्भों की भक्ति सह शक्ति कार्य कर रही है।
यहाँ फिर से कार्य आ धमका, आराम हराम होता है, अतः कुछ तो करना ही है सो क्यों न सार्थक किया जाए, जिससे सभी के मुँह में घी -शक्कर हो। इतिहास गवाह है, जब- जब सबके हित में कार्य किया गया है तो अवश्य ही उम्मीद से ज्यादा लाभ कार्य शुरू करने वाले को हुआ है।
पल में तोला, पल में माशा, अपनी खुशी का रिमोट किसी के भी हाथों में देकर हम लोग नेतृत्व करने का विचार रखते हैं। अरे भई जब हमारा स्वयं पर ही नियंत्रण नहीं है तो दूसरों पर कैसे होगा। हमारा व्यवहार तो इस बात पर निर्भर करता है कि सामने वाले ने हमारे साथ कैसा आचरण किया है। इसी कड़ी में एक चर्चा और निकल पड़ी कि ऐसे लोग जो हर दल में शामिल होकर केवल मलाई खाकर ही अपना गुजर बसर चैन पूर्वक करते चले आ रहें हैं, जब वे कुछ करते हैं तो कैसे -कैसे बखेड़े खड़े हो जाते हैं। एक आयोजन में सभी दल के लोग आमंत्रित थे। एक ही आमंत्रण पत्र सारे दलों के व्हाट्सएप पर सबके पास पहुँच गया। पार्टी में भाँति- भाँति के लोगों से खूब रौनक जमीं। सारे लोग दलगत राजनीति भूलकर एक दूसरे से गले मिलते हुए एक ही मेज पर बैठकर रसगुल्ले,चमचम उड़ा रहे थे।
इस मेल मिलाप से प्रेरित हो सारे मीडिया कर्मी भी एकजुट होकर, एक जैसी रिपोर्ट बनाकर ही प्रसारित करेंगे ये फैसला मन ही मन ले बैठे। अब तो वे एक साथ सारी बातों को समेटने लगे। अगले दिन जब खबर छपी तो इधर के नाम उधर, उधर के नाम इधर छप चुके थे। अब तो हड़कंप मच गया। सारे दलों के मुखिया भयभीत हो अकस्मात अपने – अपने पार्टी कार्यालयों में मीटिंग करते दिखे, उन्हें ये भय सताने लगा कि कहीं सचमुच ऐसा ही तो नहीं होने वाला है क्योंकि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कभी गलत हो ही नहीं सकता,आखिर आँखों देखी ही तो कहते हैं, लिखते व दिखाते हैं। मन ही मन बैचैन होकर वे लोग अंततः किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पा रहे थे। कहीं से कोई ऑडियो वायरल होने की खबर, तो कहीं से लार टपकाते लोग दिखाई देने लगे। ये कहीं शब्द तो एकजुटता पर भारी होता हुआ प्रतीत होने लगा, तभी मुस्कुराते हुए अनुभवीलाल जी कहने लगे कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, जितना तोड़ा उतना जोड़ा।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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