श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “सोचता हूँ- …” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 30 ☆ सोचता हूँ- … ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
सोचता हूँ गीत सब,नीलाम कर दूँ
आदमी जब आदमी को छल रहा है।
सच के कागज पर दिखे
झूठ के अख़बार लिक्खे
हर किसी विश्वास की
लगा क़ीमत चंद सिक्के
छल-फ़रेबों की सजी हैं मंडियाँ
बोथरा ईमान घुटनों चल रहा है।
खोलते साँकल वही
हाथ में जिनके हिफ़ाज़त
जिस किसी ने पुण्य बेचा
ख़रीदी पापी शरारत
कौन हाथों उमर की पतवार सौंपूँ
हर किनारा ज़िंदगी का गल रहा है।
देखते ही टूट जाते
बिंब सारे दर्पनों में
हाथ मैले हो गए
धर्म-पूजा अर्चनों में
किस हथेली उजाले का दीप धर दूँ
हर किसी के मन अँधेरा पल रहा है।
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© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव
सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)
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