श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “एकला चलो रे… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
छोटे – छोटे घाव भी नासूर बनकर पीड़ा पहुँचाते हैं। माना परिवर्तन प्रकृति का नियम है, परंतु अक्सर ऐसा क्यों होता है कि जब कोई व्यक्ति सफलता के चरम पर हो तभी उसे किसी न किसी कारण अपदस्थ होना ही पड़ता है। हम सभी एक लीक पर चलने के आदी होते हैं इसलिए आसानी से कोई भी बदलाव नहीं चाहते हैं। बस एक ही ढर्रे पर बने रहना हमारी नियति बन चुकी है। शायद इसी को मोटिवेशनल स्पीकर कंफर्ट जोन कहकर परिभाषित करते चले आ रहे हैं। बदलाव हमेशा बुरा नहीं होता है वैसे भी एक ही रंग देखकर मन परेशान हो उठता है, कुछ न कुछ नया होते ही रहना चाहिए तभी रोचकता बनी रहती है।
देश विदेशों सभी जगह बदलाव की ही बयार चल रही है। दरसल ये तो एक बहाना है, कुछ अपने लोगों को ही हटाना है। अब जो सच्चे सेवक हैं, उन्हें किस विधि से पदच्युत किया जावे सो बदलूराम जी ने एक नया ही राग अलापना शुरू कर दिया। चारो ओर गहमा – गहमी का माहौल बन गया। सोए हुए लोग भी सक्रिय हो गए, कहीं कोई अपने पद को छोड़ने से डर रहा था तो कहीं कोई नए पद के लालच में पूरे मनोयोग से कार्यरत दिखने लगे थे। अब तो उच्च स्तरीय कमेटी भी सक्रिय होकर अपनी भूमिका सुनिश्चित करने लगी। जो जिस पद पर है वो उससे आगे की पदोन्नति चाहता है। सीमित स्थान के साथ, एक अनार सौ बीमार की कहावत सच होती हुई दिख रही थी। अपने – अपने कार्यों का पिटारा सब ने खोल लिया। पूरे सत्र में जितने कार्य नहीं हुए थे उससे ज्यादा की सूची बना कर प्रचारित की जाने लगी।
लोग भी भ्रम में थे क्या करें, पर चतुरलाल जी समझ रहे थे कि ये सब कुछ कैबिनेट को भंग करने की मुहिम है, जब प्रधान बदलेगा तो अपने आप पुरानी व्यवस्था ध्वस्त होकर सब कुछ नया होगा, जिसमें वो तो बच जायेगा परन्तु पुराने लोग रिटार्यड होकर वानप्रस्थ के नियमों का पालन करते हुए,स्वयं सन्यास की राह पकड़ने हेतु बाध्य हो जायेंगे। खैर ये तो सदियों से होता चला आ रहा है। फूल कितना ही सुंदर क्यों न हो उसे एक दिन मुरझा कर झरना ही होता है।
जब बात फूलों की हो तो काँटों की उपस्थिति भी जरूरी हो जाती है। यही तो असली रक्षक होते हैं। कहा भी गया है, सफलता की राह में जब तक कंकड़ न चुभे तब तक मजा ही नहीं आता है। वैसे भी शरीर को स्वस्थ्य रखने हेतु एक्यूप्रेशर का प्रयोग किया ही जाता। लाइलाज रोगों को ठीक करने हेतु इन्हीं विधियों का सहारा लिया जाता रहा है। व्यवस्था को ठीक करने हेतु इन्हीं उपायों का प्रयोग शासकों द्वारा किया जाता रहा है। कदम – कदम पर चुनौतियों का सामना करते हुए उम्मीदवार उम्मीद का दामन थामें, एकला चलो रे का राग अलापते हुए चलते जा रहे हैं। वैसे भी एकल संस्कृति का चलन परिवारों के साथ – साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी नज़र आने लगा है। जब भी जोड़ -तोड़ की सरकार बनती है, तो छोटे – छोटे दलों की पूछ – परख बढ़ जाती है, क्योंकि उन्हें अपने में समाहित करना आसान होता है।
खैर परिणाम चाहें जो भी निष्ठा व आस्था के साथ सुखद जीवन हेतु हर संभव प्रयास सबके द्वारा होते रहने चाहिए।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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