डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का एक अत्यंत विचारणीय आलेख कानून, शिक्षा, संस्कार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 89 ☆
☆ कानून, शिक्षा और संस्कार ☆
कानून, शिक्षा व संस्कार/ समाज से नदारद हो चुके हैं सब/ जी हां! यही है आज का सत्य। बेरोज़गारी, नशाखोरी, भ्रूण-हत्या के कारण लिंगानुपात में बढ़ रही असमानता; संबंधों की गरिमा का विलुप्त होना; गुरु-शिष्य के पावन संबंधों पर कालिख़ पुतना; राजनीतिक आक़ाओं का अपराधियों पर वरदहस्त होना… हैवानियत के हादसों में इज़ाफा करता है। औरत को मात्र वस्तु समझ कर उसका उपभोग करना…पुरुष मानसिकता पर कलंक है, क्योंकि ऐसी स्थिति में वह मां, बहन, बेटी, पत्नी आदि के रिश्तों को नकार उन्हें मात्र सेक्स ऑब्जेक्ट स्वीकारता है।
शिक्षा मानव के व्यक्तित्व का विकास करती है और किताबी शिक्षा हमें रोज़गार प्राप्त करने के योग्य बनाती है; परंतु संस्कृति हमें सुसंस्कृत करती है; अंतर्मन में दिव्य गुणों को विकसित व संचरित करती है; जीने की राह दिखाती है; हमारा मनोबल बढ़ाती है। परंतु प्रश्न उठता है– आज की शिक्षा-प्रणाली के बारे में….क्या वह आज की पीढ़ी को यथार्थ रूप से शिक्षित कर पा रही है? क्या बच्चे ‘हैलो-हाय’ व ‘जीन्स- कल्चर’ की संस्कृति से विमुख होकर भारतीय संस्कृति को अपना रहे हैं? क्या वे गुरु-शिष्य परंपरा व बुज़ुर्गों को यथोचित मान-सम्मान देना सीख पा रहे हैं? क्या उन्हें अपने धर्म में आस्था है? क्या वे सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की अवधारणा व निष्काम कर्म की अहमियत से वाक़िफ़ हैं? क्या वे प्रेम, अहिंसा व अतिथि देवो भव: की परंपरा को जीवन-मूल्यों के रूप में स्वीकार रहे हैं? क्या जीवन के प्रति उनकी सोच सकारात्मक है?
यदि आधुनिक युवाओं में उपरोक्त दैवीय गुण हैं, तो वे शिक्षित है, सुसंस्कृत हैं, अच्छे इंसान हैं…वरना वे शिक्षित होते हुए भी अनपढ़, ज़ाहिल, गंवार व असभ्य हैं और समाज के लिए कोढ़-सम घातक हैं। वास्तव में उनकी तुलना दीमक के साथ की जा सकती है, क्योंकि दोनों में व्यवहार-साम्य है… जैसे दीमक विशालकाय वृक्ष व इमारत की मज़बूत चूलों को हिला कर रख देती है; वैसे ही पथ-भ्रष्ट, नशे की गुलाम युवा-पीढ़ी परिवार व समाज रूपी इमारत को ध्वस्त कर देती है। इसी प्रकार ड्रग्स आदि नशीली दवाएं भी जोंक के समान उसके शरीर का सारा सत्व नष्ट कर उसे जर्जर-दशा तक पहुंचा रही हैं। परिणामत: उन युवाओं की मानसिक दशा इस क़दर विक्षिप्त हो जाती है कि वे स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में पाते हैं तथा उचित निर्णय लेने में स्वयं को अक्षम पाते हैं।
संस्कारहीन युवा पीढ़ी समाज पर बोझ है; मानवता पर कलंक है; जो हंसते-खेलते, सुखी-समृद्ध परिवार की खुशियों को लील जाती है और उसे पतन की राह पर धकेल देती है। सो! उन्हें उचित राह पर लाने अर्थात् उनका सही मार्गदर्शन करने में हमारे वेद- शास्त्र, माता-पिता, शिक्षक व धर्मगुरु भी असमर्थ रहते हैं। उस स्थिति में उनके लिए कानून-व्यवस्था है; जिसके अंतर्गत उन्हें अच्छा नागरिक बनने को प्रेरित किया जाता है; अच्छे-बुरे, ग्राह्य-त्याज्य व उचित-अनुचित के भेद से अवगत कराया जाता है तथा कानून की पालना न करने पर दण्डित किया जाना उसकी अनिवार्य शर्त है। प्रत्येक व्यक्ति को अधिकारों के साथ-साथ कर्त्तव्य-बोध करवाया जाना आवश्यक है, ताकि समाज व देश में स्नेह- सौहार्द, शांति व सुव्यवस्था कायम रह सके।
मुझे यह स्वीकारने में तनिक भी संकोच नहीं कि ‘संस्कारों के बिना हमारी व्यवस्था पंगु है, मूल्यहीन है, निष्फल है, क्योंकि जब तक मानव में आस्था व विश्वास भाव जाग्रत नहीं होगा; वह तर्क-कुतर्क में उलझता रहेगा और उस पर किसी भी अच्छी बात का प्रभाव नहीं पड़ेगा। वैसे भी कानून अंधा है; साक्ष्यों पर आधारित है और उनके अभाव में अपराधियों को दंड मिल पाना असंभव है। इसी कारण अक्सर अपराधी दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध करने के पश्चात् भी छूट जाते हैं और स्वच्छंद रूप में विचरण करते रहते हैं… अगला ग़ुनाह करने की फ़िराक में और उसे अंजाम देने में वे तनिक भी संकोच नहीं करते। परिणामत: पीड़ित पक्ष के लोग न्याय से वंचित रह जाते हैं और उन्हें विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। अपराधी बेखौफ़ घूमते रहते हैं और पीड़िता के माता-पिता ही नहीं; सगे-संबंधी भी मनोरोगी हो जाते हैं… डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। अक्सर निर्दोष होते हुए भी उन पर दोषारोपण कर विभिन्न आपराधिक धाराओं के अंतर्गत जेल की सीखचों के पीछे धकेल दिया जाता है, जिसके अंतर्गत उन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ता है।
यह सब देख कर अपराधियों के हौसले बुलंद हो जाते हैं और वे अपराध-जगत् के शिरोमणि बनकर पूरे समाज में दबदबा कायम रखते हैं। आज मानव को आवश्यकता है…. सुसंस्कारों की, जीवन-मूल्यों के प्रति अटूट आस्था व विश्वास की, ताकि वे शिक्षा ग्रहण कर ‘सर्वहिताय’ के भाव से समाज व देश के सर्वांगीण विकास में योगदान प्रदान कर सकें… जहां समन्वय हो, सामंजस्य हो, समरसता हो और आमजन स्वतंत्रता-पूर्वक अपना जीवन बसर कर सकें। सो! उन पर कानून रूपी अंकुश लगाने की दरक़ार ही न हो। यदि फिर भी समाज में अव्यवस्था व्याप्त हो; विषमता व विसंगति हो और संवेदनशून्यता हावी हो, तो हमें भी सऊदी अरब देशों की भांति कठोर कानूनों को अपनाने की आवश्यकता रहेगी, ताकि अपराधी ग़ुनाह करने से पूर्व, उसके अंजाम के बारे में अनेक बार सोच-विचार करें
जब तक देश में कठोरतम कानून नहीं बनाया जाता, तब तक ‘भ्रूण-हत्या व बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बेमानी अथवा मात्र जुमला बनकर रह जाएगा। ऐसे निर्मम, कठोर, हृदयहीन अपराधियों पर नकेल कसने के साथ उन्हें चौराहे पर फांसी के तख्ते पर लटका दिया जाना ही उसका सबसे उत्तम व सार्थक विकल्प है। वर्षों तक आयोग गठित कर, मुकदमों की सुनवाई व बहस में समय और पैसा नष्ट करना निष्प्रयोजन है। बहन-बेटियों पर कुदृष्टि रखने वालों से आतंकवादियों से भी अधिक सख्ती से निपटने का प्रावधान होना चाहिए।
हां! बच्चे हों या युवा– यदि वे अमानवीय कृत्यों में लिप्त पाये जाएं; तो उनके अभिभावकों के लिए भी सज़ा का प्रावधान होना चाहिए तथा महिलाओं को आत्म-निर्भर बनाने व महिला-सुरक्षा के निमित्त बजट की राशि में इज़ाफ़ा होना चाहिए, ताकि महिलाएं समाज में स्वयं को सुरक्षित अनुभव कर, स्वतंत्रता से विचरण कर सकें…खुली हवा में सांस ले सकें। इस संदर्भ में शराब के ठेकों को बंद करना, नशे के उत्पादों पर प्रतिबंध लगाना–सरकार के प्राथमिक दायित्व के रूप में स्वीकारा जाना चाहिए।
बेटियों में हुनर है। वे हर क्षेत्र में अपने कदम बढ़ा रही हैं और हर मुक़ाम पर सफलता अर्जित कर रही हैं। हमें उनकी प्रतिभा को कम नहीं आंकना चाहिए, बल्कि सुरक्षित वातावरण प्रदान करना चाहिए, ताकि उनकी प्रतिभा का विकास हो सके तथा वे निरंकुश होकर सुक़ून से जी सकें। यही होगी हमारी उन बेटियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि… जो निर्भया के रूप में दरिंदगी की शिकार होकर; अपने प्राणों की आहुति दे चुकी हैं। आइए! हम भी इस पावन यज्ञ में यथासंभव समिधा डालें और सुंदर, स्वस्थ, सुरम्य व सभ्य समाज के विकास में योगदान दें; जहां संवेदनहीनता का लेशमात्र भी अस्तित्व न हो।
यह तो सर्वविदित तथ्य है कि संविधान में महिलाओं को समानाधिकार प्रदान किए गए हैं; परंतु वे कागज़ की फाइलों में बंद हैं। जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हो रहा है, निर्भयाओं की संख्या बढ़ती जा रही है, क्योंकि अपराधियों के नये-नये संगठन अस्तित्व में आ रहे हैं। वे ग़िरोह में आते हैं; लूटपाट कर बर्बरता से दुष्कर्म कर, उन्हें बीच राह फेंक जाते हैं। सामान्य-जन उन दहशतगर्दों से डरते हैं, क्योंकि वे किसी के प्राण लेने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। भले ही सरकार ने दुष्कर्म के अपराधियों के लिए फांसी की सज़ा का ऐलान किया है, परन्तु कितने लोगों को मिल पाती है, उनके दुष्कर्मों की सज़ा? प्रमाण आपके समक्ष है…निर्भया के केस की सवा सात वर्ष तक जिरह चलती रही। कभी माननीय राष्ट्रपति से सज़ा-मुआफ़ी की अपील; तो कभी बारी-बारी से क्यूरेटिव याचिका लगाना; अमुक मुकदमे का विभिन्न अदालतों में स्थानांतरण और फैसले की रात को अढ़ाई बजे तक साक्ष्य जुटाने का सिलसिला जारी रहने के पश्चात् अपराधियों को सज़ा-ए-मौत का फरमॉन एवं तत्पश्चात् उसकी अनुपालना… क्या कहेंगे इस सारी प्रक्रिया को आप… कानून का लचीलापन या अवमानना?
यह तो सर्वविदित है कि कोरे वादों व झूठे आश्वासनों से कुछ भी संभव नहीं हो सकेगा। यदि हम सब एकजुट होकर ऐसे परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर, उन्हें उनकी औलाद के भीतर का सत्य दिखाएं, तो शायद! उनकी अंतरात्मा जाग उठे और वे पुत्र-मोह त्याग कर उसे अपनी ज़िंदगी से बे-दखल कर दें। परंतु यदि ऐसे हादसे निरंतर घटित होते रहेंगे… तो लोग बेटियों की जन्म लेने से पहले ही इस आशंका से उनकी हत्या कर देंगे…कहीं भविष्य में ऐसे वहशी दरिंदे उन मासूमों को अपनी हवस का शिकार बनाने के पश्चात् निर्दयता से उन्हें मौत के घाट न उतार दें और स्वयं बेखौफ़ घूमते रहें।
वैसे भी आजकल दुष्कर्मियों की संख्या में बेतहाशा इज़ाफ़ा हो रहा है। देश के कोने-कोने में कितनी निर्भया दरिंदगी की शिकार हो चुकी हैं और कितनी निर्भया अपनी तक़दीर पर जीवन भर आंसू बहाने को विवश हैं, बाध्य हैं। यह बताते हुए मस्तक लज्जा-नत जाता है और वाणी मूक हो जाती है कि हर दिन असंख्य मासूम अधखिली कलियों को विकसित होने से पहले ही रौंद कर, उनकी हत्या कर दी जाती है। हमारा देश ही नहीं, पूरा विश्व किस पायदान पर खड़ा है… यह सब बखान करने की शब्दों में सामर्थ्य कहाँ?
© डा. मुक्ता
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