हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 94 ☆ ओ मातृभूमि! – डॉ सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक चर्चा /समीक्षाएं पढ़  सकते हैं ।

आज प्रस्तुत है  डा सुधा कुमारी द्वारा लिखित काव्य संग्रह   “ओ मातृभूमि !” – की चर्चा।

ओ मातृभूमि ! – कवि – डा सुधा कुमारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆ 
 पुस्तक चर्चा

पुस्तक – ओ मातृभूमि !

(पांच खण्डो में काव्य रचनाओ का पठनीय संकलन)

कवि – डा सुधा कुमारी

पृष्ठ संख्या – १६०

मूल्य  – ४५० रु,  हार्ड बाउंड

ISBN- 9788194860594

प्रकाशक – किताब वाले, दरिया गंज, नई दिल्ली २

रचना को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे अपने परिवेश के अनुकूल लिखित रचनाकार का साहित्य पाठक उसी पृष्ठभूमि पर उतरकर हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके,  जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के पिछले आवरण पर  रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. आवरण के इस प्रवेश द्वार से भीतर आते ही भूमिका, व प्राक्कथन पाठक का स्वागत करते मिलते हैं, जिससे किताब के कलेवर से किंचित परिचित होकर पाठक रचनाओ के अवगाहन का मन बनाता है, और पुस्तक खरीदता है. पुस्तक समीक्षायें इस प्रक्रिया को संक्षिप्त व सरल बना देती हैं और समीक्षक की टिप्पणी को आधार बनाकर पाठक किताब पढ़ने का निर्णय ले लेता है. किंतु इस सबसे परे ऐसी रचनायें भी होती हैं जिन पर किताब अलटते पलटते ही यदि निगाह पड़ जाये तो पुस्तक खरीदने से पाठक स्वयं को रोक नहीं पाता. ओ मातृभूमि ! की रचनायें ऐसी ही हैं. छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण. दरअसल ये रचनायें लंबे कालखण्ड में समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रही हैं. लगता है अवसर मिलते ही डा सुधा कुमारी ने इन्हें पुस्तकाकार छपवाकर मानो साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाई है जिसकी छटपटाहट उनमें  लेखन काल से रही होगी.

डा सुधा कुमारी में कला के संस्कार हैं. वे उच्चपद पर सेवारत हैं, उनकी बौद्धिक परिपक्वता हर रचना में प्रतिबिंबित होती है.  वे मात्र शब्दों से ही नहीं, तूलिका और रंगों से केनवास पर भी चित्रांकन में निपुण हैं. ओ मातृभूमि में लघु काव्य खण्ड, देश खण्ड, भाव खण्ड, प्रकृति खण्ड, तथा ईश खण्ड में शीर्षक के अनुरूप समान धर्मी रचनायें संग्रहित हैं.

मैं लेखिका को कलम की उसी यात्रा में सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं, स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं.

लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे लिखती हैं ” समानांतर रेखायें भी अनंत पर मिलती हैं, तुम्हारे साथ चलने की वजह यही उम्मीद रखती है “. या “बुद्धिरूपी राम को दूर किया, अनसुनी कर दी तर्क रूपी  लक्ष्मण की, फिर से दुहराई गई कथा , हृदय सीता हरण की. ” अब इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.

देश खण्ड की एक रचना का अंश है.. ” नित्य जब सताई जाती हैं ललनाएँ, या समिधाओ सी धुंआती हैं दुल्हने तो चुप क्यों रह जाते हो ? तुमने पाषाण कर दिया अहिल्या को ” नारी विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये डा सुधा की नारी उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.

ओ मातृभूमि, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं ” तेरा रूप देख कूंची फिसली, मेरे गीत में सरिता बह निकली, ऊंचे सपने जैसे पर्वत, बुन पाऊँ, ओ देश मेरे ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो डा सुधा की लेखनी सफल हो जावे.

उनका आध्यात्मिक ज्ञान व चिंतन परिपक्व है. ईश खण्ड से एक रचना उधृत है ” बंधन में सुख, सुख में बंधन, अर्जुन सा आराध मुझे ! प्रेम विराट कृष्ण सा कहता, आ दुर्योधन! बांध मुझे. बनती मिटती देह जरा से, कर इससे आजाद मुझे. तू लय मुझमें मैं लय तुझमें, दे बंधन निर्बाध मुझे. जीवन स्त्रोत प्रलय ज्वाला हूं, तृष्णा से मत बाँध मुझे. पूर्ण काम हूं, निर्विकार हूं, अंतरतम में साध मुझे.

भाव खण्ड में अपनी “अकविता” में वे लिखती हैं ” क्या कहूं, क्या नाम दूं तुझे ? गीत यदि कहूं तो सुर ताल की पायल तुझे बाँधी नहीं, कविता जो कहूँ तो, किसी अलंकार से सजाया नही. अनाभरण, अनलंकृत, फिर भी तू सुंदर है, संगीत भर उठता है, मन आँगन में जब जब तू घुटनों के बल चलती है, अकविता मेरी बच्ची ! ”

काव्यसंग्रह चित्रयुक्त है एवं देशखण्ड में महामानव सागर तीरे में  संदेश है कि अंतरिक्ष की खोज से पहले   संपूर्ण धरा का जीवन सुखमय बनाना आवश्यक है,  यह उल्लेखनीय है.

यद्यपि छंद शास्त्र की कसौटियों पर संग्रह की रचनाओ का आकलन पिंगल शास्त्रियो की समालोचना का  विषय हो सकता है किंतु हर रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते  मैं इस पुस्तक को खरीदकर पढ़ने में जरा भी नही सकुचाउंगा. आप को भी इसे पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.

समीक्षक .. श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈