हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 61 ☆ जुगाड़ की संस्कृति ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जुगाड़ की संस्कृति”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 61 – जुगाड़ की संस्कृति

भागने और भगाने का खेल करते- करते सोहमलाल जी अपने सारे कार्य पूरे करवा ही लेते हैं। हर बार एक नए बहाने के साथ उनका भाषण सुनने को मिल जाता है। अच्छी- अच्छी सोच, समझदारी भरी बातें किसी को भी आसानी से अपने जाल में फसाने के लिए काफी होती हैं। बस एक खूबी है, जिससे वो आज तक अपना परचम फहरा रहे हैं कि सब को साथ लेकर चलना है। जो जिस लायक हो उससे वैसा कार्य करवाना, साथ ही साथ सीखना और सिखाना।

खैर ये दुनिया तो किसी के लिए नहीं रुकती है , बस चलते रहो तो एक न एक दिन अपनी मंजिल पर पहुँच ही जाओगे। इसी मंत्र को लेकर संभावना जी लगातार प्रचार – प्रसार में लगी हुई हैं। किसी भी तरह से पोस्टर की रौनक बनना है। शहर की लगभग सभी होर्डिंग उनकी तस्वीर के बिना पूरी होती ही नहीं है। इस सब के जुगाड़ में वो दिन- रात बस चरैवेति- चरैवेति की धुन को अलापते हुए बढ़ती जा रही हैं। जो कोशिश करेगा वो तो जीतेगा ही। उच्च पद पर विराजित सोहमलाल जी व संभावना जी दोनों में यही समानता है कि वे एक पल के लिए भी मोबाइल अपने से दूर नहीं कर सकते हैं क्योंकि उनके सारे कार्यों का हमराज यही स्मार्टफोन ही तो है। उनके दिमाग मे क्या चल रहा है , ये उनसे पहले ही जान जाता है। दरसल दोनों लोग अपने दिमाग़ से नहीं किसी और के सपनों को पूरा करने के लिए दूसरे के अनुसार कार्य करते हैं।

अच्छा यही कारण है कि पल में तोला पल में मासा उनके व्यवहार से झलकता है। वे लोग अपने कहे हुए कथनों में अडिग नहीं रह पाते हैं। जैसे ही उनको नया संदेश मिला तो तुरंत पुरानी बातों को बदलते हुए नए सुर को पकड़ लेते हैं। सुर और साज का तो पुराना नाता है। राग और वैराग्य दोनों को एक साथ सम्हाल के चलना बिल्कुल ऐसे ही, जैसे रस्सी पर सधा हुआ व्यक्ति चल कर दिखाता। ऐसे कुशल लोगों को तालियाँ तो खूब मिलती हैं किंतु जब बात पैसों की हो तो वहाँ चमक- दमक ही आगे विराजित होकर सम्मानित होती हुई नज़र आती है। सम्मान के बारे में जितना कहा जाए वो कम होगा क्योंकि इसे तो उनकी ही गोद पसंद होती है जो हरे भरे नोटों से सजी रहती हो। पैसा आते ही जहाँ एक तरफ चेहरे की रौनक बढ़ती है तो दूसरी तरफ बोलने का अंदाज भी आसमान छूने लगता है।

कहते हैं कि आजकल तो वस्तुओं के भाव ही इसकी बराबरी कर सकते हैं। करें भी क्यों न?  दोनों जगह लक्ष्मी की ही पूजा जो होती है। भाव व प्रभाव का गहरा नाता है। प्रभाव बढ़ते ही भाव का बढ़ना लाजिमी होता है। छोटी- छोटी बातों को तूल देते हुए झगड़ पड़ना संभावना जी की आदतों में शुमार है। एक छोर इधर से और दूसरा उधर से इसे जोड़ने की नाकाम कोशिश करते हुए सोहमलाल जी अक्सर अपना आपा खोने लगते हैं। जुगाड़ की संस्कृति न जाने कितने घरों को बर्बाद कर चुकी है।  ऐसे व्यक्ति  न तो घर के न ही देश के सगे होते हैं ये तो बस येन केन प्रकारेण अपना उल्लू सीधा करने पर ही विश्वास रखते हैं। बस समय पास करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको बलगराते  रहते हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈